गुरुवार, 12 फ़रवरी 2009

जमीन कहां है बताइये, साइन कर देंगे

जमीन कहां है बताइये, साइन कर देंगे
एस.ए.शाद, पटना : यह मंत्र मैं सतत याद रखता हूं कि हवा, पानी और सूर्य की रोशनी के समान जमीन भी भगवान की देन है। अत: उसपर सभी का अधिकार है। --- संत विनोबा भावे उनकी इसी सोच ने देश में व्यापक रूप लेकर लाखों गरीबों के मन में एक उम्मीद जगाई। परन्तु कुछ सपने कभी सच नहीं होते। संत की संवेदना पर सरकारी तंत्र की बेरुखी हमेशा की तरह हावी हो गयी। बड़े उत्साह से उन्होंने प्रदेश में भी भूदान आंदोलन चलाया। देने वालो ने दिल खोल कर जमीन दान दी। परन्तु इस आंदोलन से मिली 2.62 लाख एकड़ जमीन हवा हो गयी। इनका अता-पता भूदान यज्ञ समिति 55 सालों बाद भी मालूम नहीं कर सकी है। भूदान आंदोलन में संत विनोबा भावे को प्रदेश में बहुत सम्मान मिला। भूदान के लिए सरकार ने 1954 में अलग से कानून बनाया। गरीब भूमिहीनों में बांटने के लिए भूदान में 6.48 लाख एकड़ जमीन दान स्वरूप मिली। परन्तु इसमें से 2.62 लाख एकड़ जमीन कहां है, यह भूदान यज्ञ समिति अब तक पता नहीं लगा पाई है। संत की एक अपील पर उदारता दिखाते हुए हथुआ महाराज ने पचास के दशक में एक लाख एकड़ जमीन दान में दी। दरभंगा महाराज ने तो और भी दरियादिली दिखाते हुए 1.25 लाख एकड़ भूमि दान की। इसी प्रकार भागलपुर के राजा कुमार कृष्णानंद सिंह ने पांच हजार एकड़ भूमि दान में दी। लेकिन जिन गरीबों के लिए इतने बड़े- बड़े दान किए गए, उनके बीच इसका पूरा वितरण आज भी नहीं हो सका है, भले ही दान करने वालों को इस असफलता की पीड़ा सताती हो। हथुआ महाराज ने गोपालगंज में एक लाख एकड़ भूमि दान में दी थी जिसमें से केवल 20 हजार एकड़ भूमि का ही विवरण मिल सका है। उनके वंशज दान में दी गयी जमीनों केगरीबों तक न पहुंचने को लेकर आज भी चिंतित हैं। समिति के वर्तमान अध्यक्ष शुभमूर्ति जब उनसे मिलने गए तो उन्होंने हर सहायता का आश्र्वासन दिया। उन्होंने दो टूक कहा-जमीन कहां है, हमें बताइए, हम तुरंत साइन कर देंगे। शुभमूर्ति के पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं है। गरीबों के लिए दान में मांगी गयी जमीन नक्शे से कहां गायब हो गयी इसके बारे में सरकार ने भी कोई ध्यान नहीं दिया। वर्ष 1954 से लेकर 1975 तक प्रदेश में समिति ने दान में प्राप्त 6.42 लाख एकड़ जमीन में से 2.5 लाख एकड़ भूमि का वितरण किया। लेकिन इमरजेंसी के बाद से अब तक समिति भूमिहीनों तक नहीं पहुंच पायी। प्रदेश के विभिन्न जिलों में ऐसे अनेक भूखंड हैं जिनकी सूची तो समिति के पास हैं, परन्तु इसके नक्शे, खाते, खसरे (जमीन के दस्तावेज ) आदि नहीं मिल पाए हैं। यह जमीन किसके कब्जे में है यह भी समिति को पता नहीं। चौंकाने वाल बात तो यह है कि पिछले तीन दशकों में ग्रामीण इलाकों में जमीन को लेकर हुई हिंसक घटनाओं और गरीबों पर अत्याचार के बावजूद भूदान यज्ञ समिति को उपलब्ध फिलहाल 92 हजार एकड़ भूमि का वितरण भूमिहीनों में नहीं किया गया है। क्रमश:

सोमवार, 9 फ़रवरी 2009

सुहानी होने लगी शामें

सुहानी होने लगी शामें लगभग नौ करोड़ की आबादी वाले प्रदेश में कम पूंजी निवेश, बढ़ती बेरोजगारी, 47।53 प्रतिशत साक्षरता, भूमि विवाद, अपेक्षाकृत कम प्रति व्यक्ति आय, बुनियादी सुविधाओं का अभाव आदि ऐसे कई समाजार्थिक कारण हैं, जिनसे अपराध की घटनाएं बढ़ती रही हैं। अपराध मुक्त राज्य एक आदर्श स्थिति की कल्पना है, इसलिए सरकारें इस दिशा में बढ़ने का प्रयास करती हैं। उनका कामकाज सबसे पहले इसी पैमाने पर मापा जाता है। अपराध नियंत्रण के लिए अच्छी पुलिसिंग के साथ-साथ त्वरित न्याय देने वाली प्रणाली जरूरी होती है। राजग सरकार ने इन दोनों मोर्चे पर व्यवस्थागत खामियां दूर करने के लिए ठोस काम किये हैं। पुलिस की कमान बेहतर हाथों में सौंपना, सैप का गठन, राजनीतिक हस्तक्षेप की प्रवृत्ति पर अंकुश, जवानों का मनोबल ऊंचा रखने वाले उपाय, नयी भर्ती की पहल आदि कई काम पिछले तीन साल में हुए हैं। दूसरी तरफ स्पीडी ट्रायल (त्वरित न्याय) पर जोर दिया गया। पुलिस मुख्यालय ने जो आंकड़े जारी किए हैं, उसके अनुसार जनवरी-09 में 1387 लोगों को विभिन्न अपराधों में सजा सुनायी गयी। इनमें 195 लोगों को आजीवन कारावास की सजा हुई। अकेले पटना जिले में 115 लोगों को सजा सुनायी गयी। नालंदा दूसरे स्थान पर रहा। वहां 107 लोगों को सजा हुई। इसके बाद भोजपुर जिले में 87, सिवान में 81 और मुजफ्फरपुर में 80 लोगों को विभिन्न अपराधों में सजा हुई। 2006 से अब तक स्पीडी ट्रायल के तहत 30,086 लोग सजायाफ्ता हुए। इनमें 83 लोगों को मृत्युदंड और 6059 लोगों को आजीवन कारावास की सजा सुनायी गयी है। इस मुद्दे की गंभीरता इसी से समझी जा सकती है कि खुद मुख्यमंत्री के स्तर से ट्रायल के आंकड़ों की समीक्षा (मानिटरिंग) होती रही है। कोर्ट में पुलिस अफसरों की गवाही के लिए मुख्यालय ने अलग से व्यवस्था की है। कंप्यूटर में सभी अधिकारियों का पूरा ब्योरा उपलब्ध है। जिनकी जरूरत गवाही के लिए होती है, उनका पता लगाने में परेशानी नहीं होती। दोषी को जल्द से जल्द सजा दिलाने के ऐसे प्रयास इतने व्यापक स्तर पर पहले कभी नहीं होते दिखे थे, इसलिए अपराध करना आसान हुआ करता था। अब ऐसा नहीं है। यदि गांव की पगडंडी से लेकर शहर के माल तक निरापद शामें सुहानी और रातें उत्सवी होने लगी हैं, तो इसके पीछे सिर्फ फागुन का असर नहीं है। भयमुक्त वातावरण बनाने के लिए कुछ महकमों को निश्चय ही पसीना बहाना पड़ा होगा। यह जज्बा बना रहा, तो फिजा ठहर सकती है। राहुल गांधी के नेक विचार कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी की इस साहसिक और ईमानदारी भरी टिप्पणी के लिए सराहना की जानी चाहिए कि आज की राजनीति में केवल उन्हें ही मौका मिल पाता है जो ऊंची पहुंच, पैसे वाले या फिर सिफारिशी होते हैं। करीब-करीब सभी राजनीतिक दलों में ऐसा ही होता है, लेकिन कोई भी राहुल गांधी की तरह सच्चाई बयान करने के लिए तैयार नहीं। उलटे अब तो ऐसे ही लोगों को अहमियत दी जा रही है जो चापलूस अथवा सिफारिशी होते हैं। यही कारण है कि टिकट बिकने के आरोप रह-रह कर सामने आ रहे हैं। राहुल गांधी के इस विचार से शायद ही कोई असहमत हो सके कि जब तक सिफारिश और चापलूसी के जरिये आगे बढ़ने की प्रवृत्ति को रोका नहीं जाता तब तक युवाओं की राजनीति में सही भागीदारी नहीं होगी, लेकिन यह भी स्पष्ट है कि केवल सच को स्वीकार करने से समस्या का समाधान नहीं होने वाला। राजनीति में चापलूसी और सिफारिशी प्रवृत्ति ने एक बड़ी विकृति का रूप ले लिया है। इसे किसी भी किस्म की संस्कृति की संज्ञा तो दी ही नहीं जा सकती। यह तो संस्कृति शब्द का अपमान है। भारतीय राजनीति चापलूसी और सिफारिश के साथ अन्य अनेक विकृतियों से भी ग्रस्त है। ये इतनी गहरे पैठ गई हैं कि अपील, आह्वान आदि करने से कुछ भी होने वाला नहीं है। इन विकृतियों के कारण ही राजनीति में न तो सही सोच वाले युवाओं की भागीदारी हो पा रही है और न ही अन्य वर्गो के लोगों की। विडंबना यह है कि एक ओर इन विकृतियों को हर संभव तरीके से संरक्षण दिया जा रहा है और दूसरी ओर यह रट भी लगाई जा रही है कि अच्छे लोग राजनीति में भागीदारी करने के लिए आगे आएं। आखिर जब ऐसे लोगों के लिए कोई प्रवेश द्वार ही नहीं है तो फिर वे राजनीति में आगे कैसे बढ़ सकते हैं? यह शुभ संकेत है कि युवा राजनीतिक शक्ति के संभावना भरे प्रतीक राहुल गांधी सही सोच रखने के साथ उसे बेहिचक बयान भी कर रहे हैं, लेकिन बात तब बनेगी जब वह सबसे पहले अपने दल में व्याप्त चापलूसी एवं सिफारिशी प्रवृत्ति को दूर करने में समर्थ हो जाएंगे। यह आसान कार्य नहीं, क्योंकि यह वह दौर है जब किस्म-किस्म की राजनीतिक मजबूरियों की आड़ में तरह-तरह की विकृतियों को बल प्रदान के साथ उन्हें परंपरा का भी रूप दिया जा रहा है। यद्यपि राहुल गांधी अपने स्तर पर युवाओं के लिए गुंजाइश बनाने में लगे हुए हैं, लेकिन अभी तक उन्होंने जो प्रयास किए हैं वे बहुत उम्मीद नहीं जगाते। दरअसल राजनीतिक बुराइयों को समाप्त करने के लिए किसी क्रांतिकारी पहल की दरकार है। इस पहल को आक्रामकता के साथ आगे बढ़ाने की जरूरत है, क्योंकि तभी उस ढांचे को हिलाया जा सकता है जिसमें राजनीतिक विकृतियों को संस्कृति मानकर संरक्षण दिया जा रहा है। राहुल गांधी इसके पहले भी अनेक मुद्दों पर सही सोच सामने रख चुके हैं। कुछ समय पहले उन्होंने यह कहा था कि अब तो रुपये में पांच पैसे भी निर्धारित मद में खर्च नहीं हो रहे हैं। उनके इस कथन ने हलचल तो खूब पैदा की थी, लेकिन नतीजा ढाक के तीन पात वाला रहा। बेहतर होगा कि राहुल गांधी अपने नेक विचारों पर अमल भी करके दिखाएं। वस्तुत: तभी वह करिश्माई नेतृत्व की कसौटी पर खरे उतर सकेंगे और इसमें दो राय नहीं कि आज देश को ऐसे ही नेतृत्व की सख्त जरूरत है।स्त्र चेतना व्यक्तित्व का निर्धारण करती है मंगलवार 10 फरवरी 2009 : फाल्गुन कृष्ण

रविवार, 8 फ़रवरी 2009

हिंदू सभ्यता का प्रवाह अपने मूल रूप में जीवंत है।

भूमंडल पर केवल भारतवर्ष एक ऐसा राष्ट्र है जहां सैंकड़ों वर्ष के निरंतर आघात के बाद आज भी हिंदू सभ्यता का प्रवाह अपने मूल रूप में जीवंत है। यह पृथ्वी पर हिंदुओं की आदि काल से सर्वमान्य पुण्य भूमि है। देश बंटा, हिंदू घटा, फिर भी अवशिष्ट राष्ट्र में हिंदू समाज प्रतिरोध की शक्ति बचाए हुए है। जब हिंदू समाज लगातार आक्रमणों का शिकार होता रहा तब क्या विभाजित देश में उसे अपनी परंपराओं और संस्कृतिक, धार्मिक आस्थाओं के रक्षण का अधिकार नहीं होना चाहिए? क्या हजार वर्ष के प्रतिरोध का प्रतिफल यह नहीं होना चाहिए कि भारत की राजनीति प्रथमतया राष्ट्रीय सभ्यता के मूल तत्वों एवं उसके घटकों की रक्षा हेतु सिद्ध हो? इस सभ्यतामूलक राजनीतिक प्रवाह के अन्यतम व्याख्याता पं. दीनदयाल उपाध्याय थे, जिनकी सिर्फ 52 वर्ष की आयु में 11 फरवरी 1968 को मुगलसराय के पास रेलगाड़ी में प्रवास करते हुए हत्या कर दी गई थी। उनका कहना था, पश्चिम के अर्थ में, सेक्युलर स्टेट का अर्थ लौकिक राज्य ही लगाया जा सकता है, किंतु भारतीय जनता धर्म-राज्य या राम-राज्य की भूखी है और वह केवल लौकिक उन्नति में ही संतोष नहीं कर सकती। भारतीयता की स्थापना भी केवल एकांगी उन्नति से नहीं हो सकती, क्योंकि हमने लौकिक और पारलौकिक उन्नति को एक दूसरे का पूरक ही नहीं, एक दूसरे से अभिन्न माना है। पारलौकिक उन्नति के क्षेत्र में राज्य की ओर से किसी एक मत की कल्पना अनुचित होगी। उसके द्वारा ऐसा वातावरण उत्पन्न करना होगा जिसमें सभी मत बढ़ सकें तथा एकं सद्विप्रा: बहुधा वदंति के सिद्धांत का पालन कर सकें। विडंबना है कि आज अधिकांश राजनीतिक दल, भारतीय होते हुए भी इस राष्ट्र की मूल सभ्यता के प्रवाह से न केवल कट गए हैं, बल्कि अपने तात्कालिक राजनीतिक उद्देश्यों के लिए उसके स्वरूप पर आघात करने से संकोच नहीं करते। कश्मीर में सौ से अधिक प्राचीन मंदिरों का ध्वंस, राममंदिर निर्माण के लिए सर्वदलीय सहमति का अभाव, रामसेतु भंजन के लिए सक्रिय सत्ता का राम के अस्तित्व से इनकार, हिंदुओं के मतांतरण पर मौन और हिंदू संवेदनाओं के विषय जैसे गोहत्या पर रोक के बजाय अहिंदू वर्ग को हिंदू हितों की कीमत पर प्रोत्साहन दास मानसिकता के द्योतक हैं। दीनदयाल उपाध्याय इस मानसिकता के विरूद्ध राष्ट्रीयता का घोष बने। उनका कहना था, हमारी आत्मा ने अंग्रेजी राज्य के प्रति विद्रोह केवल इसलिए नहीं किया कि दिल्ली में बैठकर राज्य करने वाला एक अंग्रेज था, अपितु इसलिए भी कि हमारे जीवन की गति में विदेशी पद्धतियां और रीति-रिवाज, विदेशी दृष्टिकोण और आदर्श अड़ंगा लगा रहे थे, हमारे संपूर्ण वातावरण को दूषित कर रहे थे, हमारे लिए सांस लेना भी दूभर हो गया था। इस राजनीति के उत्तराधिकारी अटल बिहारी वाजपेयी बने। उनके मन में दीनदयाल जी के प्रति सदा भक्ति भाव दिखा। पां†जन्य में उन्हें भाऊराव देवरस और दीनदयाल जी ही लाए थे। हिंदू तन मन, हिंदू जीवन, रग रग हिंदू मेरा परिचय तथा गगन में लहराता है भगवा हमारा जैसे प्रसिद्ध गीतों की रचना कर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से प्रेरित प्रखर सभ्यतामूलक राष्ट्रीयता का वही प्रवाह अटल जी ने आगे बढ़ाया जो उनको दीनदयाल जी से मिला था। संघ संस्थापक डा. हेडगेवार का स्मरण करते हुए अटल जी का एक प्रसिद्ध गीत आज भी सरसंघचालक श्री सुदर्शन बड़ी तन्मयता से सुनाते हैं। इसकी प्रथम पंक्ति है: केशव के आजीवन तप की, यह पवित्रतम धारा/ साठ सहस ही नहीं तरेगा इससे भारत सारा! छह वर्ष के वाजपेयी राज में सैन्य शक्ति संव‌र्द्धन, ढ़ांचागत सुविधाओं का असाधारण सृजन और ग्रामीण विकास के क्षेत्र में नए कीर्तिमान स्थापित हुए। उन्होंने उपाध्याय जी की जन्मस्थली नगला चंद्रभान में ग्रामीण विकास के नए प्रयोगों को प्रोत्साहित किया। इस परिदृश्य में वर्तमान दलों को देखें तो क्या भाजपा या वाम दलों के अतिरिक्त किसी अन्य दल की कोई वैचारिक निष्ठा कही जा सकती है? केवल व्यक्ति केंद्रित राजनीति का निजी अभीप्साओं के लिए इस प्रकार उपयोग करना जैसे कोई व्यापारी किसी उद्यम में मुनाफे की लालसा से पूंजी निवेश करे, वैसे ही राजनीति में धन लगाकर धन कमाने का चलन बढ़ चला है। जब तक भारत का मन सुरक्षित रहा, बाहरी आक्रमणों को हमने अपनी काया पर झेला और भारतीय जनता को स्वत्व रक्षा के लिए सन्नद्ध किया। अब यदि मन ही धन के प्रभाव में बदल जाए, वह रामचरित मानस में शक्ति का स्रोत ढूंढ़ने के बजाय पब-संस्कृति में स्त्री-स्वातं˜य का दर्शन करने लगे तो भारतीय काया को प्रतिरोध हेतु प्रेरित कौन करेगा? भाजपा जैसे दल पर चुनौती केवल उन अभारतीय तत्वों को ही परास्त करने की नहीं है जो एक विद्रूप सेक्युलरवाद के नाम पर भारत के मूल अधिष्ठान पर चोट कर रहे हैं, बल्कि उसे सभ्यता के प्रवाह को संरक्षित करने वाली विचार केंद्रित भारतीय सत्ता स्थापित करनी है। आज भाजपा जिन मूल्यों को लेकर यहां तक पहुंची है उसके पीछे सैकड़ों कार्यकर्ताओं का बलिदान रहा है। वह जिन दो महापुरुषों को प्रेरणास्रोत मानती है उन दोनों का जीवन के उस बिंदु पर हौतात्म्य हुआ जब वे श्रेष्ठतम उत्कर्ष की ओर बढ़ रहे थे। श्यामा प्रसाद मुखर्जी और दीनदयाल उपाध्याय दोनों ही 52 वर्ष की आयु में अकाल मृत्यु का शिकार हुए। जम्मू कश्मीर में तिरंगा लहराने से लेकर अयोध्या और केरल तक दो सौ से अधिक कार्यकर्ता केवल अपनी हिंदुत्वनिष्ठ विचारधारा के कारण मार डाले गए हंै। भाजपा के सत्ता की ओर बढ़ते कदम इन शहीदों के बलिदान से शक्ति पाते हैं। भारतीय राजनीति के इस जंगल में जहां व्यक्ति ही दल बन गया है, केवल कार्यकर्ताओं का बलिदान और संगठनहिताय-तप ही भाजपा को विजय प्राप्त करने का मार्ग दिखा सकता है। वरना इस दौर में राजनीति का अर्थ ही एक दूसरे को गिराना, हतबल करना और खुद सीढ़ी चढ़ने की कोशिश बन गया है। (लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)

राजनीति का असली उद्देश्य

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राजनीति का असली उद्देश्य भूमंडल पर केवल भारतवर्ष एक ऐसा राष्ट्र है जहां सैंकड़ों वर्ष के निरंतर आघात के बाद आज भी हिंदू सभ्यता का प्रवाह अपने मूल रूप में जीवंत है। यह पृथ्वी पर हिंदुओं की आदि काल से सर्वमान्य पुण्य भूमि है। देश बंटा, हिंदू घटा, फिर भी अवशिष्ट राष्ट्र में हिंदू समाज प्रतिरोध की शक्ति बचाए हुए है। जब हिंदू समाज लगातार आक्रमणों का शिकार होता रहा तब क्या विभाजित देश में उसे अपनी परंपराओं और संस्कृतिक, धार्मिक आस्थाओं के रक्षण का अधिकार नहीं होना चाहिए? क्या हजार वर्ष के प्रतिरोध का प्रतिफल यह नहीं होना चाहिए कि भारत की राजनीति प्रथमतया राष्ट्रीय सभ्यता के मूल तत्वों एवं उसके घटकों की रक्षा हेतु सिद्ध हो? इस सभ्यतामूलक राजनीतिक प्रवाह के अन्यतम व्याख्याता पं. दीनदयाल उपाध्याय थे, जिनकी सिर्फ 52 वर्ष की आयु में 11 फरवरी 1968 को मुगलसराय के पास रेलगाड़ी में प्रवास करते हुए हत्या कर दी गई थी। उनका कहना था, पश्चिम के अर्थ में, सेक्युलर स्टेट का अर्थ लौकिक राज्य ही लगाया जा सकता है, किंतु भारतीय जनता धर्म-राज्य या राम-राज्य की भूखी है और वह केवल लौकिक उन्नति में ही संतोष नहीं कर सकती। भारतीयता की स्थापना भी केवल एकांगी उन्नति से नहीं हो सकती, क्योंकि हमने लौकिक और पारलौकिक उन्नति को एक दूसरे का पूरक ही नहीं, एक दूसरे से अभिन्न माना है। पारलौकिक उन्नति के क्षेत्र में राज्य की ओर से किसी एक मत की कल्पना अनुचित होगी। उसके द्वारा ऐसा वातावरण उत्पन्न करना होगा जिसमें सभी मत बढ़ सकें तथा एकं सद्विप्रा: बहुधा वदंति के सिद्धांत का पालन कर सकें। विडंबना है कि आज अधिकांश राजनीतिक दल, भारतीय होते हुए भी इस राष्ट्र की मूल सभ्यता के प्रवाह से न केवल कट गए हैं, बल्कि अपने तात्कालिक राजनीतिक उद्देश्यों के लिए उसके स्वरूप पर आघात करने से संकोच नहीं करते। कश्मीर में सौ से अधिक प्राचीन मंदिरों का ध्वंस, राममंदिर निर्माण के लिए सर्वदलीय सहमति का अभाव, रामसेतु भंजन के लिए सक्रिय सत्ता का राम के अस्तित्व से इनकार, हिंदुओं के मतांतरण पर मौन और हिंदू संवेदनाओं के विषय जैसे गोहत्या पर रोक के बजाय अहिंदू वर्ग को हिंदू हितों की कीमत पर प्रोत्साहन दास मानसिकता के द्योतक हैं। दीनदयाल उपाध्याय इस मानसिकता के विरूद्ध राष्ट्रीयता का घोष बने। उनका कहना था, हमारी आत्मा ने अंग्रेजी राज्य के प्रति विद्रोह केवल इसलिए नहीं किया कि दिल्ली में बैठकर राज्य करने वाला एक अंग्रेज था, अपितु इसलिए भी कि हमारे जीवन की गति में विदेशी पद्धतियां और रीति-रिवाज, विदेशी दृष्टिकोण और आदर्श अड़ंगा लगा रहे थे, हमारे संपूर्ण वातावरण को दूषित कर रहे थे, हमारे लिए सांस लेना भी दूभर हो गया था। इस राजनीति के उत्तराधिकारी अटल बिहारी वाजपेयी बने। उनके मन में दीनदयाल जी के प्रति सदा भक्ति भाव दिखा। पां†जन्य में उन्हें भाऊराव देवरस और दीनदयाल जी ही लाए थे। हिंदू तन मन, हिंदू जीवन, रग रग हिंदू मेरा परिचय तथा गगन में लहराता है भगवा हमारा जैसे प्रसिद्ध गीतों की रचना कर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से प्रेरित प्रखर सभ्यतामूलक राष्ट्रीयता का वही प्रवाह अटल जी ने आगे बढ़ाया जो उनको दीनदयाल जी से मिला था। संघ संस्थापक डा. हेडगेवार का स्मरण करते हुए अटल जी का एक प्रसिद्ध गीत आज भी सरसंघचालक श्री सुदर्शन बड़ी तन्मयता से सुनाते हैं। इसकी प्रथम पंक्ति है: केशव के आजीवन तप की, यह पवित्रतम धारा/ साठ सहस ही नहीं तरेगा इससे भारत सारा! छह वर्ष के वाजपेयी राज में सैन्य शक्ति संव‌र्द्धन, ढ़ांचागत सुविधाओं का असाधारण सृजन और ग्रामीण विकास के क्षेत्र में नए कीर्तिमान स्थापित हुए। उन्होंने उपाध्याय जी की जन्मस्थली नगला चंद्रभान में ग्रामीण विकास के नए प्रयोगों को प्रोत्साहित किया। इस परिदृश्य में वर्तमान दलों को देखें तो क्या भाजपा या वाम दलों के अतिरिक्त किसी अन्य दल की कोई वैचारिक निष्ठा कही जा सकती है? केवल व्यक्ति केंद्रित राजनीति का निजी अभीप्साओं के लिए इस प्रकार उपयोग करना जैसे कोई व्यापारी किसी उद्यम में मुनाफे की लालसा से पूंजी निवेश करे, वैसे ही राजनीति में धन लगाकर धन कमाने का चलन बढ़ चला है। जब तक भारत का मन सुरक्षित रहा, बाहरी आक्रमणों को हमने अपनी काया पर झेला और भारतीय जनता को स्वत्व रक्षा के लिए सन्नद्ध किया। अब यदि मन ही धन के प्रभाव में बदल जाए, वह रामचरित मानस में शक्ति का स्रोत ढूंढ़ने के बजाय पब-संस्कृति में स्त्री-स्वातं˜य का दर्शन करने लगे तो भारतीय काया को प्रतिरोध हेतु प्रेरित कौन करेगा? भाजपा जैसे दल पर चुनौती केवल उन अभारतीय तत्वों को ही परास्त करने की नहीं है जो एक विद्रूप सेक्युलरवाद के नाम पर भारत के मूल अधिष्ठान पर चोट कर रहे हैं, बल्कि उसे सभ्यता के प्रवाह को संरक्षित करने वाली विचार केंद्रित भारतीय सत्ता स्थापित करनी है। आज भाजपा जिन मूल्यों को लेकर यहां तक पहुंची है उसके पीछे सैकड़ों कार्यकर्ताओं का बलिदान रहा है। वह जिन दो महापुरुषों को प्रेरणास्रोत मानती है उन दोनों का जीवन के उस बिंदु पर हौतात्म्य हुआ जब वे श्रेष्ठतम उत्कर्ष की ओर बढ़ रहे थे। श्यामा प्रसाद मुखर्जी और दीनदयाल उपाध्याय दोनों ही 52 वर्ष की आयु में अकाल मृत्यु का शिकार हुए। जम्मू कश्मीर में तिरंगा लहराने से लेकर अयोध्या और केरल तक दो सौ से अधिक कार्यकर्ता केवल अपनी हिंदुत्वनिष्ठ विचारधारा के कारण मार डाले गए हंै। भाजपा के सत्ता की ओर बढ़ते कदम इन शहीदों के बलिदान से शक्ति पाते हैं। भारतीय राजनीति के इस जंगल में जहां व्यक्ति ही दल बन गया है, केवल कार्यकर्ताओं का बलिदान और संगठनहिताय-तप ही भाजपा को विजय प्राप्त करने का मार्ग दिखा सकता है। वरना इस दौर में राजनीति का अर्थ ही एक दूसरे को गिराना, हतबल करना और खुद सीढ़ी चढ़ने की कोशिश बन गया है। (लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)