सोमवार, 9 फ़रवरी 2009
सुहानी होने लगी शामें
सुहानी होने लगी शामें लगभग नौ करोड़ की आबादी वाले प्रदेश में कम पूंजी निवेश, बढ़ती बेरोजगारी, 47।53 प्रतिशत साक्षरता, भूमि विवाद, अपेक्षाकृत कम प्रति व्यक्ति आय, बुनियादी सुविधाओं का अभाव आदि ऐसे कई समाजार्थिक कारण हैं, जिनसे अपराध की घटनाएं बढ़ती रही हैं। अपराध मुक्त राज्य एक आदर्श स्थिति की कल्पना है, इसलिए सरकारें इस दिशा में बढ़ने का प्रयास करती हैं। उनका कामकाज सबसे पहले इसी पैमाने पर मापा जाता है। अपराध नियंत्रण के लिए अच्छी पुलिसिंग के साथ-साथ त्वरित न्याय देने वाली प्रणाली जरूरी होती है। राजग सरकार ने इन दोनों मोर्चे पर व्यवस्थागत खामियां दूर करने के लिए ठोस काम किये हैं। पुलिस की कमान बेहतर हाथों में सौंपना, सैप का गठन, राजनीतिक हस्तक्षेप की प्रवृत्ति पर अंकुश, जवानों का मनोबल ऊंचा रखने वाले उपाय, नयी भर्ती की पहल आदि कई काम पिछले तीन साल में हुए हैं। दूसरी तरफ स्पीडी ट्रायल (त्वरित न्याय) पर जोर दिया गया। पुलिस मुख्यालय ने जो आंकड़े जारी किए हैं, उसके अनुसार जनवरी-09 में 1387 लोगों को विभिन्न अपराधों में सजा सुनायी गयी। इनमें 195 लोगों को आजीवन कारावास की सजा हुई। अकेले पटना जिले में 115 लोगों को सजा सुनायी गयी। नालंदा दूसरे स्थान पर रहा। वहां 107 लोगों को सजा हुई। इसके बाद भोजपुर जिले में 87, सिवान में 81 और मुजफ्फरपुर में 80 लोगों को विभिन्न अपराधों में सजा हुई। 2006 से अब तक स्पीडी ट्रायल के तहत 30,086 लोग सजायाफ्ता हुए। इनमें 83 लोगों को मृत्युदंड और 6059 लोगों को आजीवन कारावास की सजा सुनायी गयी है। इस मुद्दे की गंभीरता इसी से समझी जा सकती है कि खुद मुख्यमंत्री के स्तर से ट्रायल के आंकड़ों की समीक्षा (मानिटरिंग) होती रही है। कोर्ट में पुलिस अफसरों की गवाही के लिए मुख्यालय ने अलग से व्यवस्था की है। कंप्यूटर में सभी अधिकारियों का पूरा ब्योरा उपलब्ध है। जिनकी जरूरत गवाही के लिए होती है, उनका पता लगाने में परेशानी नहीं होती। दोषी को जल्द से जल्द सजा दिलाने के ऐसे प्रयास इतने व्यापक स्तर पर पहले कभी नहीं होते दिखे थे, इसलिए अपराध करना आसान हुआ करता था। अब ऐसा नहीं है। यदि गांव की पगडंडी से लेकर शहर के माल तक निरापद शामें सुहानी और रातें उत्सवी होने लगी हैं, तो इसके पीछे सिर्फ फागुन का असर नहीं है। भयमुक्त वातावरण बनाने के लिए कुछ महकमों को निश्चय ही पसीना बहाना पड़ा होगा। यह जज्बा बना रहा, तो फिजा ठहर सकती है। राहुल गांधी के नेक विचार कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी की इस साहसिक और ईमानदारी भरी टिप्पणी के लिए सराहना की जानी चाहिए कि आज की राजनीति में केवल उन्हें ही मौका मिल पाता है जो ऊंची पहुंच, पैसे वाले या फिर सिफारिशी होते हैं। करीब-करीब सभी राजनीतिक दलों में ऐसा ही होता है, लेकिन कोई भी राहुल गांधी की तरह सच्चाई बयान करने के लिए तैयार नहीं। उलटे अब तो ऐसे ही लोगों को अहमियत दी जा रही है जो चापलूस अथवा सिफारिशी होते हैं। यही कारण है कि टिकट बिकने के आरोप रह-रह कर सामने आ रहे हैं। राहुल गांधी के इस विचार से शायद ही कोई असहमत हो सके कि जब तक सिफारिश और चापलूसी के जरिये आगे बढ़ने की प्रवृत्ति को रोका नहीं जाता तब तक युवाओं की राजनीति में सही भागीदारी नहीं होगी, लेकिन यह भी स्पष्ट है कि केवल सच को स्वीकार करने से समस्या का समाधान नहीं होने वाला। राजनीति में चापलूसी और सिफारिशी प्रवृत्ति ने एक बड़ी विकृति का रूप ले लिया है। इसे किसी भी किस्म की संस्कृति की संज्ञा तो दी ही नहीं जा सकती। यह तो संस्कृति शब्द का अपमान है। भारतीय राजनीति चापलूसी और सिफारिश के साथ अन्य अनेक विकृतियों से भी ग्रस्त है। ये इतनी गहरे पैठ गई हैं कि अपील, आह्वान आदि करने से कुछ भी होने वाला नहीं है। इन विकृतियों के कारण ही राजनीति में न तो सही सोच वाले युवाओं की भागीदारी हो पा रही है और न ही अन्य वर्गो के लोगों की। विडंबना यह है कि एक ओर इन विकृतियों को हर संभव तरीके से संरक्षण दिया जा रहा है और दूसरी ओर यह रट भी लगाई जा रही है कि अच्छे लोग राजनीति में भागीदारी करने के लिए आगे आएं। आखिर जब ऐसे लोगों के लिए कोई प्रवेश द्वार ही नहीं है तो फिर वे राजनीति में आगे कैसे बढ़ सकते हैं? यह शुभ संकेत है कि युवा राजनीतिक शक्ति के संभावना भरे प्रतीक राहुल गांधी सही सोच रखने के साथ उसे बेहिचक बयान भी कर रहे हैं, लेकिन बात तब बनेगी जब वह सबसे पहले अपने दल में व्याप्त चापलूसी एवं सिफारिशी प्रवृत्ति को दूर करने में समर्थ हो जाएंगे। यह आसान कार्य नहीं, क्योंकि यह वह दौर है जब किस्म-किस्म की राजनीतिक मजबूरियों की आड़ में तरह-तरह की विकृतियों को बल प्रदान के साथ उन्हें परंपरा का भी रूप दिया जा रहा है। यद्यपि राहुल गांधी अपने स्तर पर युवाओं के लिए गुंजाइश बनाने में लगे हुए हैं, लेकिन अभी तक उन्होंने जो प्रयास किए हैं वे बहुत उम्मीद नहीं जगाते। दरअसल राजनीतिक बुराइयों को समाप्त करने के लिए किसी क्रांतिकारी पहल की दरकार है। इस पहल को आक्रामकता के साथ आगे बढ़ाने की जरूरत है, क्योंकि तभी उस ढांचे को हिलाया जा सकता है जिसमें राजनीतिक विकृतियों को संस्कृति मानकर संरक्षण दिया जा रहा है। राहुल गांधी इसके पहले भी अनेक मुद्दों पर सही सोच सामने रख चुके हैं। कुछ समय पहले उन्होंने यह कहा था कि अब तो रुपये में पांच पैसे भी निर्धारित मद में खर्च नहीं हो रहे हैं। उनके इस कथन ने हलचल तो खूब पैदा की थी, लेकिन नतीजा ढाक के तीन पात वाला रहा। बेहतर होगा कि राहुल गांधी अपने नेक विचारों पर अमल भी करके दिखाएं। वस्तुत: तभी वह करिश्माई नेतृत्व की कसौटी पर खरे उतर सकेंगे और इसमें दो राय नहीं कि आज देश को ऐसे ही नेतृत्व की सख्त जरूरत है।स्त्र चेतना व्यक्तित्व का निर्धारण करती है मंगलवार 10 फरवरी 2009 : फाल्गुन कृष्ण
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