बुधवार, 15 दिसंबर 2010

अफजल की तरह कसाब को बचाने

  • वोट को हासिल करने के लिए कांग्रेस का यह कोई नया हथकंडा नहीं है। इसके पहले भी कई कांग्रेसी नेताओं ने बेबुनियाद बयान देकर देश को शर्मसार और अलगाववादी ताकतों को मजबूत किया है। कांग्रेस के अखिल भारतीय महामंत्री दिग्विजय सिंह ने 26-11-20o8 को मुम्बई पर हुये हमले में पुलिस अधिकारी हेमंत करकरे की मौत के लिए हिंदू वादी संगठन को दोषी करार दिया है। सबूत में उन्होंने घटना से दो घंटे पहले हुई उनसे टेलीफोन पर बातचीत को बताया है। स्वर्गीय हेमंत करकरे की पत्नी कविता करकरे ने दिग्विजय सिंह के बयान को वोट प्राप्ति का जरिया बताकर खारिज कर दिया है और कहा है कि दिग्विजय सिंह पूरी तरह से झूठ बोल रहे हैं, मेरे पति की हत्या किसी हिंदूवादी संगठनों ने नहीं बल्कि पाकिस्तानी आतंकवादियों ने की है। कविता करकरे ने यह भी कहा कि वोट के लिए मेरे पति की शहादत का अपमान नहीं किया जाय। यह पहली घटना नहीं है कि जब इस नेताजी ने इस प्रकार का बयान दिया है, इसके पहले भी राष्ट्रीय स्वयं सेवक को देश द्रोही संगठन व सिमी से भी अधिक खतरनाक बताना और अपने मुख्यमंत्रित्व काल में संघ पर प्रतिबंध लगाने की पुरजोर वकालत वे कर चुके हैं। दिग्विजय के बयान से हालांकि कांग्रेस ने अपना कोई सरोकार नहीं जोड़ा है, लेकिन भाजपा ने इस बयान पर प्रधानमंत्री व सोनिया गांधी से सफाई मांगी है। पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने दिग्विजय सिंह से पूछा है कि आखिर घटना के दो साल बाद ही वे ऐसा क्यों बोल रहे हैं, जबकि इसका खुलासा तो तुरंत की जानी चाहिए। उन्होंने यह भी पूछा है कि हेमंत करकरे से उनका परिचय कब से था, और अपने पर होने वाले संभावित हमले की जानकारी किसी इंटेलीजैंस ब्ूयूरो को न देकर उनसे ही क्यों कही। यह जो बयान है निश्चित तौर पर कांग्रेस की मंशा को व्यक्त करता है। मुम्बई हमले के बाद तत्कालीन अल्पसंख्यक कल्याण मंत्री ए आर रहमान अंतुले ने भी यह कह कर कि मालेगांव बम विस्फोट की जांच कर रहे करकरे को हिंदुवादी संगठनों ने धमकी दी थी, इसलिए इनकी इस मौत में वे भी शामिल हो सकते हैं। तत्कालीन कांग्रेस की सरकार इस बयान पर अपनी मौन सहमति देकर वोट के नफा नुकसान में जुट गई थी। बेबसाइट विकिलीक्स ने भी साफ तौर पर ख्ुालासा किया है कि कांग्रेस ने इस घटना का राजनीतिक लाभ लेने का भरपूर प्रयास किया था और यह सुनिश्चित कराने की कोशिश की थी कि इस घटना से हिंदूवादी संगठनों को जोड़ दिया जाय। इसलिए दिग्विजय सिंह के इस बयान को अंतुले के उस समय दिये गये बयान से जोड़ कर देखा जाना चाहिए। संसद पर हमले का मुख्य सूत्रधार अफजल जिसे जिला सत्र न्यायालय से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक ने फांसी की सजा सुनाई हो उस अफजल को तुष्टीकरण की खातिर फंासी से बचाने वाली कांग्रेस का मुम्बई हमले में शामिल और भारतीय जेल में बंद कसाब को कहीं बचाने की तैयारी तो नहीं है। कांग्रेस की नीति में वह सब जायज है जिससे उसे वोट प्राप्त होता हो। नहीं तो अर्जुन सिंह के मानव संसाधन मंत्री के कार्यकाल में देश में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की शाखा ही खोलने पर क्यों जोर दिया गया। कांग्रेस सरकार देश मे किसी और विश्वविद्यालय को नहीं बल्कि केवल इसी विश्वविद्यालय को आदर्श विश्वविद्यालय के तौर पर देखती है। जबकि यह सर्वविदित है कि इसी मुस्लिम विश्वविद्यालय में भारत विभाजन का रोडमैप तैयार हुआ था। चाहे जिन्ना हो या उस समय के भारत विभाजन के अन्य गुनहगार सभी को इस विश्ववि़द्यालय ने इसे अंजाम देने में मदद पहुंचाई। लेकिन कांग्रेस को वोट चाहिए इसलिए देश की अस्मिता ही क्यों न खतरे में पड़ जाय। यदि मन के अंदर ऐसी कोई कामना नहीं होती तो दिग्विजय सिंह सरीखे नेताओं की बोलती बहुत पहले ही बंद कर दी जाती। यह कांग्रेस है यहां कोई किसी से कम नहीं है चाहे उनकी जमीनी ताकत कुछ भी हो। बिहार की जनता ने जिसे राजनीति औकात बताया उस राहुल गांधी ने भी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को सिमी की तरह देशद्राही संगठन कहा था। सवाल आखिर यह है कि कांग्रेस इस प्रकार की राजनीति क्यों कर रही है, हिंदू बहुल देश में हिंदुओं को बदनाम करने का जो वह कुत्सित प्रयास कर रही है उसका परिणाम उसे स्वयं ही भुगतना होगा। वोट को हासिल करने के लिए कांग्रेस का यह कोई नया हथकंडा नहीं है। इसके पहले भी कई कांग्रेसी नेताओं ने बेबुनियाद बयान देकर देश को शर्मसार और अलगाववादी ताकतों को मजबूत किया है। कांग्रेस के अखिल भारतीय महामंत्री दिग्विजय सिंह ने 26-11-2010 को मुम्बई पर हुये हमले में पुलिस अधिकारी हेमंत करकरे की मौत के लिए हिंदू वादी संगठन को दोषी करार दिया है। सबूत में उन्होंने घटना से दो घंटे पहले हुई उनसे टेलीफोन पर बातचीत को बताया है। स्वर्गीय हेमंत करकरे की पत्नी कविता करकरे ने दिग्विजय सिंह के बयान को वोट प्राप्ति का जरिया बताकर खारिज कर दिया है और कहा है कि दिग्विजय सिंह पूरी तरह से झूठ बोल रहे हैं, मेरे पति की हत्या किसी हिंदूवादी संगठनों ने नहीं बल्कि पाकिस्तानी आतंकवादियों ने की है। कविता करकरे ने यह भी कहा कि वोट के लिए मेरे पति की शहादत का अपमान नहीं किया जाय। यह पहली घटना नहीं है कि जब इस नेताजी ने इस प्रकार का बयान दिया है, इसके पहले भी राष्ट्रीय स्वयं सेवक को देश द्रोही संगठन व सिमी से भी अधिक खतरनाक बताना और अपने मुख्यमंत्रित्व काल में संघ पर प्रतिबंध लगाने की पुरजोर वकालत वे कर चुके हैं। दिग्विजय के बयान से हालांकि कांग्रेस ने अपना कोई सरोकार नहीं जोड़ा है, लेकिन भाजपा ने इस बयान पर प्रधानमंत्री व सोनिया गांधी से सफाई मांगी है। पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने दिग्विजय सिंह से पूछा है कि आखिर घटना के दो साल बाद ही वे ऐसा क्यों बोल रहे हैं, जबकि इसका खुलासा तो तुरंत की जानी चाहिए। उन्होंने यह भी पूछा है कि हेमंत करकरे से उनका परिचय कब से था, और अपने पर होने वाले संभावित हमले की जानकारी किसी इंटेलीजैंस ब्ूयूरो को न देकर उनसे ही क्यों कही। यह जो बयान है निश्चित तौर पर कांग्रेस की मंशा को व्यक्त करता है। मुम्बई हमले के बाद तत्कालीन अल्पसंख्यक कल्याण मंत्री ए आर रहमान अंतुले ने भी यह कह कर कि मालेगांव बम विस्फोट की जांच कर रहे करकरे को हिंदुवादी संगठनों ने धमकी दी थी, इसलिए इनकी इस मौत में वे भी शामिल हो सकते हैं। तत्कालीन कांग्रेस की सरकार इस बयान पर अपनी मौन सहमति देकर वोट के नफा नुकसान में जुट गई थी। बेबसाइट विकिलीक्स ने भी साफ तौर पर ख्ुालासा किया है कि कांग्रेस ने इस घटना का राजनीतिक लाभ लेने का भरपूर प्रयास किया था और यह सुनिश्चित कराने की कोशिश की थी कि इस घटना से हिंदूवादी संगठनों को जोड़ दिया जाय। इसलिए दिग्विजय सिंह के इस बयान को अंतुले के उस समय दिये गये बयान से जोड़ कर देखा जाना चाहिए। संसद पर हमले का मुख्य सूत्रधार अफजल जिसे जिला सत्र न्यायालय से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक ने फांसी की सजा सुनाई हो उस अफजल को तुष्टीकरण की खातिर फंासी से बचाने वाली कांग्रेस का मुम्बई हमले में शामिल और भारतीय जेल में बंद कसाब को कहीं बचाने की तैयारी तो नहीं है। कांग्रेस की नीति में वह सब जायज है जिससे उसे वोट प्राप्त होता हो। नहीं तो अर्जुन सिंह के मानव संसाधन मंत्री के कार्यकाल में देश में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की शाखा ही खोलने पर क्यों जोर दिया गया। कांग्रेस सरकार देश मे किसी और विश्वविद्यालय को नहीं बल्कि केवल इसी विश्वविद्यालय को आदर्श विश्वविद्यालय के तौर पर देखती है। जबकि यह सर्वविदित है कि इसी मुस्लिम विश्वविद्यालय में भारत विभाजन का रोडमैप तैयार हुआ था। चाहे जिन्ना हो या उस समय के भारत विभाजन के अन्य गुनहगार सभी को इस विश्ववि़द्यालय ने इसे अंजाम देने में मदद पहुंचाई। लेकिन कांग्रेस को वोट चाहिए इसलिए देश की अस्मिता ही क्यों न खतरे में पड़ जाय। यदि मन के अंदर ऐसी कोई कामना नहीं होती तो दिग्विजय सिंह सरीखे नेताओं की बोलती बहुत पहले ही बंद कर दी जाती। यह कांग्रेस है यहां कोई किसी से कम नहीं है चाहे उनकी जमीनी ताकत कुछ भी हो। बिहार की जनता ने जिसे राजनीति औकात बताया उस राहुल गांधी ने भी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को सिमी की तरह देशद्राही संगठन कहा था। सवाल आखिर यह है कि कांग्रेस इस प्रकार की राजनीति क्यों कर रही है, हिंदू बहुल देश में हिंदुओं को बदनाम करने का जो वह कुत्सित प्रयास कर रही है उसका परिणाम उसे स्वयं ही भुगतना होगा।

शनिवार, 11 दिसंबर 2010

बिहार में लालू, रामविलास व राहुल गांधी सिमटे बिहार के चुनावी नतीजे देश के सामने हैं। लालू प्रसाद -राम विलास पासवान और कांग्रेस की सभी संभावनाओं पर पानी फिर गया। विकास ने अपनी परिभाषा इस चुनाव के माध्यम से लिख दी है। बिहार को विकास व रोजगार चाहिए इस परिणाम ने पूरी तरह से यह साबित कर दिया है। कुशासन नहीं सुशासन चाहिए। जातीय गठजोड़ नहीं विकास का समुच्य चाहिए। गाली नहीं सम्मान चाहिए और बिहार पर गौरव का स्वाभिमान व आत्मविश्वास चाहिए। हालांकि 2005 में ही जनता ने भाजपा-जदयू को जनादेश दे दिया था लेकिन इस बार की 8 करोड़ 30 लाख जनता ने इन पांच वर्षों के स्वशासन पर मुहर लगाते हुए ऐतिहासिक जीत का इतिहास भाजपा-जदयू के नाम रच दिया। ऐसी जीत जो आज तक किसी राजनीतिक दल के नाम यहां नहीं लिखी गयी थी। बिहार अपने उस सांस्कृतिक व सामाजिक गौरव को फिर से स्थापित करने को लालायित है, जिसकी उसे वर्षों से चाह रही है। बस एक नेतृत्व की जरूरत थी जो उसे उस मंजिल का रास्ता दिखा सके। वह उस जातीय मकड़जाल और सामाजिक न्याय से पूरी तरह से बाहर निकलने को आतुर रही, जिसे लालू यादव व कांग्रेस ने बिछाकर लम्बे समय तक राज किया था। उसे उस सामाजिक न्याय की दरकार थी जो, भय, भूख भ्रष्टाचार से मुक्त कर अतीत के गौरवशाली बिहार का उसे हमसफर बना सके। बिहार का जनमानस अपने उस नेतृत्व के साथ एक बार फिर से खड़ा है, जो उसे पांच साल पहले मिला था। निश्चित रुप से नीतीश कुमार व सुशील मोदी का वह वाक्य कि इन पांच वर्षों में यहां बहुत कुछ बदल गया है आइए इसे और विस्तार करते हुये एक मंजिल दे, जनता को पसंद आया और वह इस गंठबंधन के साथ पहले की अपेक्षा और डटकर खडी हुई। यह जीत उस विकास का निष्कर्ष है जो इन पांच सालों में भाजपा-जदयू गंठबंधन की सरकार ने यहां पेश की, जनता इस विकास तस्वीर को आधा-अधूरा बीच में ही छोड़ना नहीं चाहती थी, पूरा करना व देखना चाहती थी। उन्होंने वादा निभाया है अब वादा निभाने की बारी भाजपा-जदयू गठबंधन की है। विकास की एक तस्वीर पर नजर डाले तो पता चलेगा कि आखिर जनता इस गठबंधन के साथ क्यों खड़ी रही। लालू के 15 सालों के जंगलराज की तुलना में सड़क निर्माण 2005-06 के 415 किलोमीटर से बढ़कर 2008-09 में 2417 किलोमीटर हुआ। नवजात बच्चों की मौत की दर में काफी कमी आयी। प्रसव के दौरान होने वाली मौत की दरों में काफी गिरावट आयी। सामाजिक क्षेत्र पर आवंटन 2004-05 के 137 करोड़ रूपये से बढ़कर 2009-10 में 1455 करोड़ रुपये हुआ। शिक्षा पर खर्च 2004-05 के मुकाबले 2009-10 में 114. 79 प्रतिशत से बढ़कर 8344.09 करोड़ रुपये हो गया। स्वास्थ्य पर खर्च 2004-05 के 607.47 करोड़ रुपये से बढ़कर 2009-10 में 1662.80 करोड़ रुपये हो गया। बीते वित्त वर्ष में बिहार के विकास दर को 11 फीसदी कर गुजरात के बराबर करने की कोशिश इस दोनों नेताओं ने की। एक टर्म के शासन काल में ही बिहार बदलता दिखने लगा, सृजनात्मक, भयमुक्त अपराधियों पर शिकंजा व विकास की जमीनी सच्चाई से लोग रु-ब-रु होने लगे। इसलिए जनता उस जंगलराज के नायक के नेतृत्व में नहीं बल्कि स्वशासन देने वाले और बंदूक की गोलियों की आवाज से मुक्त करने वाले नायक के साथ खड़े हुये। राजद-लोजपा व कांग्रेस का सारा कुनबा ही सिमट गया। बड़बोलेपन, व अपरिपक्व राजनीति पर विराम लग गया। लालू प्रसाद, रामविलास पासवान व कांग्रेस ये तीनों यहां खलनायक की तरह थे जो बार-बार यहां की अस्मिता पर चोट करने के बाद भी शासन करने का सपना पाले थे। लेकिन इस चुनाव में इन दलों को ऐसा झटका लगा कि वे संवैधानिक तौर पर विपक्ष की भूमिका भी हासिल नहीं कर सके। इनका छद्म सामाजिक न्याय टूट-टूट कर शीशे की तरह चूर -चूर हो गया। बिहार में कांग्रेस सम्मानजनक सीटें प्राप्त करने के लिए लड़ रही थी। जबकि 1989 से ही वह वहां कमजोर व शुन्य की स्थिति में है। देश में पहली बार जब भ्रष्टाचार चुनावी मुद्दा बना था तो कांग्रेस का बिहार से पूरी तरह सफाया हो गया। 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को मिले 10 प्रतिशत वोट, को उसने स्वयं को विकल्प समझ लिया। जबकि कांग्रेस को यह मत प्रतिशत संगठन, कार्य व विचार कौशल के कारण नहीं बल्कि चन्द उन उम्मीदवारों के कारण बढ़ा था, जो दूसरे दलों से आकर चुनाव लड़े जिनकी कुछ राजनीतिक जमीन थी। इसी मुगालते में राहुल व सोनिया गांधी मतदाताओं से मिले, चुनावी सभाएँ की और सरकार बनाने का अवसर देने की अपील की। आखिर जनता जानती है कि आजादी के बाद लम्बे समय तक कांग्रेस का ही यहां शासन था। बिहार में जातीय राजनीति की शुरुआत, भ्रष्टाचार, सांप्रदायिक ध्रवीकरण व कस्बे-कस्बे में अराजकता को बिछाने का काम इसी कांग्रेस ने किया था। बिहार के पिछड़ेपन और अतीत के विध्वंस के लिए कांग्रेस को आज भी वहां की जनता जिम्मेवार मानती है। 1990 के बाद लालू यादव ने भी वहीं किया जो कांग्रेस करती आ रही थी। कांग्रेस से सबक नहीं लेते हुये वहीं जातीय गठजोड़ की राजनीति की शुरुआत की। 15 वर्षों तक बिहार उन्हें झेलता रहा और सुधरने का अवसर भी देता रहा, लेकिन वे कांग्रेस की तरह ही सत्ता को अपनी नियति मान बैठे थे, वहीं हुआ जो 1989 में कांग्रेस के साथ जनता ने किया, पूरी तरह से सफाया जिसका अनुमान भी उन्हें नहीं था। जिस जाति समीकरण के सहारे वे स्वयं को मजबूत मानते थे, उसी समीकरण ने छोड़कर विकास का सुनहरा दामन थाम लिया। वे बेनकाब हुये। उनकी असलियत बिहार व देश के सामने आयी। चुनाव अभियान में जनता से सत्ता देने की बात करते रहे, पांच वर्षों के विकास कार्य को फर्जी आंकड़े के सहारे वे गलत साबित ठहराते रहे, लेकिन लोगों ने उनकी एक न सुनी औैर पारिवारिक पार्टी राजद व लोजपा को एक सिंगल परिवार बनाकर छोड़ दिया। लोकसभा चुनाव के बाद राहुल गांधी पूरे दमखम के साथ विधानसभा चुनाव की रणनीति बनाने में जुटे थे। लेकिन उनकी बातों को अपरिपक्व करार देते हुये उससे स्वयं को अलग कर लिया। अधिकांश राजनीतिक विश्लेषकों का कहना कि मतदाताओं पर राहुल गांधी का प्रभाव नहीं पड़ता है, गुजरात, झारखण्ड, छतीसगढ़ मध्यप्रदेश के विधानसभा चुनाव के नतीजे उनके सामने थे। बावजूद राहुल राग का अलापना कांग्रेसियों ने बन्द नहीं हुआ। राहुल गांधी जहाँ-जहाँ गये कांग्रेस प्रत्याशियों को बुरी तरह से पराजय का सामना करना पड़ा। राहुल गांधी का जादू मनमोहन सिंह सरीखे नेताओं पर चल सकता है लेकिन देश के मतदाताओं पर नहीं। बिहार में सम्पन्न 6 चरणों के चुनाव में राहुल गांधी की जोदार सभाएँ आयोजित कर भीड़ जुटायी गयी। 17 सभाएँ व रैलियाँ का परिणाम सिफर निकला। कटिहार, अररिया, सुपौल, सीतामढ़ी मुज्जफपुर समस्तीपुर कुचायकोट, मांझी, बेगुसराय मुंगेर, भागलपुर शेखपुरा, नवादा सासाराम व औरंगाबाद इन सभी जगहों पर उम्मीदवारो की जमानत जब्त हुई या वे पांचवे छठे स्थान पर रहे। 10 प्रतिशत वोट को सत्ता तक पहुंचाने की कोशिश में महज चार सीटों से ही संतोष करना पड़ा। ये है राहुल का चमत्कार कि जहां वे जाते हैं, कांगेस को हारना ही होता है। सोनिया गांधी ने भी बड़ी सभाएं की लेकिन उनका हश्र भी राहुल गांधी की तरह हुआ। भीड़ जुटी, लोग सुने लेकिन विश्वास नहीं किया, क्योंकि आज भी बिहारी जनमानस को स्मरण है कि लालू की अराजक सरकार को आक्सीजन देने का काम कांग्रेस ने सरकार में शामिल होकर किया था। उसके सभी विधायक लालू शासन में मंत्री बनाये गये थे। जीत के लिए समीकरण नहीें विजन और न्याय परक सोच चाहिए। फरवरी 2005 के विधानसभा चुनाव पर गौर करें तो रामविलास पासवान की पार्टी को जनता ने अकेले 20 से अधिक सीटों पर विजयी बनाया। अपराधियों का गठजोड़ बनाकर बिहार को कलंकित करने का काम इसी पासवान ने किया, जो मुस्लिम मुख्यमन्त्री को बनाने की माँग कर रहे थे। नवम्बर में दोबारा विधानसभा चुनाव में यह सीटें घटकर आधा हो गयी। लेकिन इस बार तो पूरी की पूरी राजनीतिक जमीन ही सिमट गई। जिस जनता ने उन्हें भारत में सबसे अधिक वोटों से जीता कर उनके नाम लोकसभा का रिकार्ड बनवाया, तो उसी ने उन्हें दिल्ली के लायक नहीं समझ भाई, पत्नी, दामाद की पार्टी लोजपा को एक कोने में समेटकर रख दिया। उनकी बोलती बंद कर दी। तीन सीटें देकर प्रायश्चित के लिए छोड़ दिया। रही बात लालू प्रसाद यादव की तो लोग आज भी उनके खौफनाक अंदाज को नहीं भूले हैं, उनके पारिवारिक सदस्यों और रसोई से निकलकर मुख्यमंत्री बनी राबड़ी देवी की हनक अपराधियों की शरण स्थली, अपहरण लूट, गुण्डागर्दी बलात्कार, रोजगार शून्य, ठप्प शिक्षा व्यवस्था का उसे स्मरण है। पति-पत्नी साले एण्ड कंपनी ही यहां के विशेषण बने हुए थे और इसी विशेषण ने बिहार की अस्मिता व राजनीति को बदनाम कर रखा था। आज भी पटना का गांधी मैदान उस जातीय रैलियों का गवाह है, जिसका आयोजन वे अपनी उपलब्धियाँ बताने के लिए नहीं बल्कि जातीय उन्माद को भड़काने के लिए किया करते थे, समाज को जोड़ने में नहीं बल्कि टुकड़े-टुकड़े में तोड़ने का काम इसी लालू प्रसाद यादव ने किया था। लोकतन्त्र में इस कदर शर्मनाक स्थिति का सामना यहाँ की जनता ने किया है। शायद वे बुद्ध के बोधित्व के बिहार, महावीर के प्रज्ञा के बिहार, गुरुगोविंद सिंह की जन्मस्थली, नालंदा व विक्रमशीला विश्वविद्यालय के बिहार, चंद्रगुप्त, चाणक्य, सम्राट अशोक व वैशाली के गणतंत्र के बिहार को भूल गये थे। लेकिन वहां की जनता ने उन्हें यह स्मरण करा दिया कि बिहार की पहचान इन कारणों से है न कि राबड़ी लालू से। शायद लालू प्रसाद को विश्वास था कि वे जातीय समीकरण के संजाल व भ्रम को फैलाकर जनता को एक बार फिर गुमराह करने में सफल होंगे; लेकिन वे इसे कर पाने में नाकामयाब रहे। 20 सालों तक जनता के साथ शासन कान्ट्रेक्ट की बात करने वाले लालू यादव का कान्ट्रेक्ट जनता ने 2005 में ही तोड़ दिया था, लेकिन अब उन्हें तो भविष्य में किसी कान्ट्रेक्ट के लायक भी नहीं छोड़ा। जिस तरह किसी फिल्मी पर्दें पर खलनायकों का अन्त दिखाया जाता है, उसी अंदाज में लालू हेकड़ी को जनता ने अन्त कर दिया है, जो फिर कभी राजनीति की गरिमा पर नाहक चोट न कर सके।
आशुतोष झाआजादी के बाद कांग्रेस की रणनीति में कोई मजबूत विपक्ष देश में ऊभर कर सामने नहीं आये यह नेहरु काल से ही कांग्रेस का राजनीतिक ऐजेण्डा रहा है। कमजोर विपक्ष के साथ कांग्रेस को काम करने का एक लंबा अनुभव है। लेकिन आज जब भाजपा एक मजबूत विपक्ष के तौर पर उसके सामने खड़ी है तो वह अपने उस 40-45 सालों के शासन का अनुभव व स्वाद नहीं ले पा रही है, जो उसने कल तक लिया था। कांग्रेस की तुलना में भाजपा का पूरे देश में एक मजबूत संगठन उसे आज अखड़ रहा है। अटल जी के नेतृत्व में केंद्र में सरकार का चलना और देश के कई राज्यों में भाजपा का शासन उसे असहज बनाये हुये है। लंबे समय तक केंद्र व प्रदेश में एक-छत्र राज करने वाली कांग्रेस को यह नागवार लग रहा है कि उसका सामना एक मजबूत पार्टी व विपक्ष से है। इसलिए भाजपा शासन व पार्टी को वह बदनाम करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रही है। इसके लिए वह सीबीआई का भरपूर मदद ले रही है। सीबीआई के बल पर वह भाजपा नेताओं, मुख्यमंत्रियों व कार्यकर्ताओं को डराने-धमकाने में जुटी है। भाजपा राज्य में कई ऐसे मामले उभर कर सामने आये, जिसका निबटारा वहां की राज्य पुलिस व जांच ऐजेन्सियों द्वारा संभव था बावजूद दिल्ली में सत्ता की धाक की बदौलत वह उस मामले को सीबीआई या संसदीय जाँच समिति से कराने की सिफारिश कर भाजपा सरकार को बदनाम करने का काम करती है। आज भी कर रही है। कोई मजबूत कारण नहीं, बल्कि केवल यह कहना कि इस शासन में न्यायसंगत न्याय व निर्णय संभव नहीं है इसलिए वहां के मुकदमे की सुनवायी गुजरात से बाहर करायी जाय। कांग्रेस के लिए भाजपा को बदनाम करना एक रुटीन जैसा बन गया है। गुजरात में आतंकवादियों को मुठभेड़ में मारने वहां के पुलिस अधिकारियों को जेल की सजा भुगतनी पड़ रही है, वहां के गृहमंत्री तक को जेल भेजने का काम सीबीआई ने कांग्रेस के ईशारे पर किया। राज्य की खुफिया व सभी जांच ऐजेंसियों को पूरी तरह से बदनाम करने का काम इस केंद्र की सरकार ने किया है। यहाँ तक की गुजरात की अदालत से भी वहाँ के लोगों का विश्वास समाप्त हो प्रयास किया गया। वहीं बात एक बार जो नेहरु ने किया वहीं आज मनमोहन सिंह, सोनिया गांधी कर रही है। कांग्रेस को यह जबाव देना होगा कि जिस सीबीआई को हथियार बनाकर वह भाजपा नेताओं को डराने-धमकाने में जुटी है जबकि बोफोर्स मामले में सभी गवाह, व सबूत होने के बाद भी क्वात्रोची को अपने शिकंजे में नहीं लिया गया, इसलिए कि राजीव गांधी का नाम इस बोफार्स मामले से जुड़ा था। सीबीआई के एक पूर्व निदेशक का कहना कि क्वात्रोची को क्लीन चिट देना बिल्कुल गलत था, क्योंकि उसके बारे में सभी पुख्ता सबूत भारत सरकार व सीबीआई के पास था। सीबीआई का यह तक कहना कि क्वात्रोची का नाम इंटरपोल की मोस्ट वान्टेड सूची से हटा दिया जाय, जबकि पिछले 12 सालों से क्वात्रोची का नाम इंटरपोल की सूची में था। 19 साल पहले यह मामला प्रकाश में आया था, जब स्वीडन की हथियार कंपनी ने भारतीय सेना को बोफोर्स तोपे सप्लाई करने का सौदा किया, जिसमे 80 लाख डॉलर की दलाली खाई गई थी। उनका यह भी कहना कि सीबीआई वहीं करती है, जो उसे केंद्र सरकार कहती है, किस मामले को दबाना है, और किसको उठाना है यह वह सरकार के निर्देश पर ही वह करती है। छतीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी पर विधायकों की खरीद-फरोख्त से संबंधित सभी सुबूत सीबीआई को था, बावजूद कोई कार्रवाई अजीत जोगी पर नहीं की गई। मायावती के आय से अधिक मामले पर सीबीआई ने कहा कि मायावाती के खिलाफ इसके पास पर्याप्त सबूत है, लेकिन बाद में जब मायावती ने मनमोहन सिंह सरकार की मदद की तो उसी सीबीआई ने कहा कि इस आय से अधिक मामले में कोई दम नहीं है। 2007 में मुलायम सिंह के लिए भी सीबीआई का रोल कुछ ऐसा ही रहा। परमाणु समझौते के मसले पर वामपंथियों ने सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया था, तो इस समझौते व अपने मामले को सीबीआई से कमजोर कराने के लिए कांग्रेस को समर्थन दिया, जो कांग्रेसी कल तक मुलायम सिंह का इस मामले पर विरोध जारी रखे हुये थे, उसी कांग्रेसी ने उनके खिलाफ अपनी याचिका तक वापस ले लिया। यह है कांग्रेसी नीति जहां अपने काम निकलवाने के लिए सीबीआई का बेजा उपयोग और उसे समर्थन देने वाले दलों को भी राहत मुहैया करायी जाती है। कांग्रेस को यह भी बताना चाहिए आंध्र प्रदेश के इसाई मुख्यमंत्री को हजारों करोड़ों की संपति कहाँ से आयी, मालूम हो कि इसी मुख्यमंत्री ने मंदिरों में आये दान को चर्चों में लगा दिया। सीबीआई कहाँ गायब हो गई शायद मनमोहन सिंह को इसका उत्तर नहीं मिल पा रहा होगा। लेकिन यदि भाजपा शासन में इस प्रकार का मामला रहता तो संगीन धाराओं के साथ वहां की सरकार को वह घेरने का प्रयास करती। मुम्बई में आदर्श सोसाईटी घोटाला देश के सामने है, कारगिल के शहीदों के लिए बने फलैट को कांग्रेसी नेता, अफसरों के बीच बांट दिया गया। उन सभी अधिकारियों को यह मुहैया कराया गया, जिसका इस्तेमाल वह विरोधियों को डराने धमकाने के लिए करती है। करोड़ों के फलैट को महज लाखों रुपये में आवंटित कर दिया गया। भाजपा शासित गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को बदनाम करने के लिए केंद्र की सरकार कोई कोर -कसर नहीं छोड़ रही है। गोधरा कांड या उसके बाद के दंगे सोहराबुदीन कांड पर कांग्रेस वहाँ की सरकार को बदनाम कर रही है। जब कि यह स्थापित सत्य है कि सोहराबुदीन एक आतंकवादी था, उसके अलकायदा से सीधे संबंध थे, बावजूद उसको राष्ट्रवादी बताने वह उसे फर्जी मुठभेड़ में मारे जाने के मामले को वह तूल दी है। सोहराबुदीन मामले पर वहां के आला पुलिस अधिकारियों व वहां के गृहमंत्री अमित शाह को जेल भेजने का काम सीबीआई के माध्यम से इस कांग्रसी सरकार ने किया है। राज्य सभा में विपक्ष के नेता अरुण जेटली ने कहा कि जिस प्रकार कांग्रेस भाजपा शासन को बदनाम कर रही है, सोहराबुदीन को फर्जी मुठभेड़ में मारे जाने का मामला बनाकर नरेंद्र मोदी सरकार को बदनाम किये हुये है, सवाल तो माआवादी नेता आजाद के भी मुठभेड़ में मारे जाने का उठ रहा है, क्या इसके लिए क्या गहमंत्री चिदंबरम पर केश चलना चाहिए। लेकिन सीबीआई ने इस मामले में वहां के गृहमंत्री अमित शाह, पुलिस के कई आला अधिकारियों और बैंक के अधिकारियों सहित 15 लोागें पर आरोप तय किये हैं। पुलिस उप महानिरीक्षक, दो पुलिस अधीक्षक, दो पुलिस उप अधीक्षक, दो निरीक्षक, तीन उप निरीक्षक, गुजरात अपराध शाखा के डीजीपी एडीजीपी, व बैंक के दो शीर्ष अधिकारियों पर आरोप तय हुये हैं। उन पर 201, 302, 368, 365, 384 के तहत आरोप लगाये गये हैं। जो हत्या, अपहरण, सबूत नष्ट करने, और प्रताड़ना की धाराएं है। अभय चूडासामना, डीजी बंजारा, और रामकुमार पांडियान आज भी इस सोहराबुदीन मामले में जेल में हैं। केंद्र सरकार ने भाजपा के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी व गुजरात के विकास को रोकने के लिए सीबीआई को सुपारी दी है। केंद्र की जितनी भी जांच ऐजेसियां हैं मोदी के लिए खुफिया की तरह काम कर रही है। नरेंद्र मोदी को बदनाम करने वाली सीबीआई ने दिल्ली में हुये सिखों की हत्या में जगदीश टाईटर को क्लीन चिट दे दिया। इसको लेकर पूरे पंजाब व देश के कई कोने में सीबीआई के खिलाफ प्रदर्शन किया गया, कि वह केंद्र सरकार के ईशारे पर काम कर रही है। 15 जून 2004 को अमजद जीशान, जावेद और इशरतजहां को गुजरात पलिस ने मार गिराया। गुजरात पुलिस का दावा कि इन सभी लोगों का आतंकवादी संगठनों से संबंध था, और वे मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की हत्या करना चाहते थे। केंद्र सरकार ने भी अपनी रिपोर्ट में इन सभी का लश्करे तौयबा के साथ संबंध बताया था। कांग्रेस की सरकार ने भाजपा शासित गुजरात सरकार को बदनाम करने के लिए उन सभी हथकंडो का प्रयोग किया, जो एक केंद्रीय शासन को नहीं करना चाहिए। गुजरात की पुलिस, वहां की सरकार, वहां की जांच ऐजेंसियों को तो बदनाम किया ही साथ ही वहां की अदालत पर भी अविश्वास जताते हुये इन मुकदमों की सुनवाई गुजरात से बाहर कराने को लेकर देश में बबाल काटा। सुप्रीम कोर्ट में भी इससे संबंधित याचिका दायर करने से वह पीछे नहीं रही। यानि हर तरीके से बदनाम करने का षडयंत्र लेकिन वहां की जनता नरेंद्र मोदी की छवि पर कोई संशय व्यक्त नहीं करते हुये उनके साथ खड़ी रही। किस प्रकार गुजरात के बडोदरा के बेस्ट बेकरी कांड को गुजरात से बाहर सुनवाई कराने के लिए कांग्रेस व उसके सहयोगी दलों ने देश में बबाल पैदा किया था। गुजरात की न्यायपालिका पर सवालिया निशान खड़ा करते हुये उस पर पूरी तरह से अविश्वास जताया गया। बेस्ट बेकरी कांड की सुनवाई करने के बावत यह बात सुप्रीम कोर्ट में पहुंचाई गई। सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई के लिए गुजरात से बाहर मुम्बई की अदालत में इसे स्थानांतरित कर दिया। इस बावत गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि मेरी इसमें कोई स्वाभाविक रुचि नहीं है कि इसकी सुनवाई कहां होती है, लेकिन जिस प्रकार से गुजरात की न्यायपालिका पर अविश्वास जताया गया है, यह यहां की जनता व गुजरात के लिए ठीक नहीं है। जो अदालत बडोदरा, गांधीनगर में बैठी थी उसे स्थानांतरित कर मुम्बई के हवाले कर दिया गया। इस केस से संबंधित कुछ नहीं बदला केवल न्यायाधीश बदला। इस केस से संबंधित गुजरात पुलिस की इनक्वायरी, विटनेस, इनवेस्टीगेशन, व गुजरात पुलिस ने जिसे गिरफतार किया था, उसी के आधार पर दोषयों को सजा सुनाई गई। गुजरात की न्यायपालिका वहां की पुलिस और वहां की जनता को बदनाम करने के लिए सभी रणनीति को अपनाया न्यायपालिका को बदनाम करने का षडयंत्र तो कांग्रेस ही कर सकती है, क्योंकि इसके पहले भी न्यायपालिका के फैसले को बदलने, और न्यायपालिका के दिये कई अहम निर्णय को वह लटकाये हुये है। हम दूसरा उदाहरण गुजरात से ही संबंधित बिलकिश बानो केस का देते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने इसे गुजरात की न्यायालय से मुम्बई स्थानांतरण कर दिया। पहले इस मुकदमे की सभी स्तर पर जांच गुजरात पुलिस ने की तीन साल बाद इसे सीबीआई को सौंप दिया गया। पहले यह मामला गुजरात की न्यायालय में था बाद में उसे मुम्बई भेजा गया। वहां गुजरात पुलिस की जार्चशीट रखी गई, गुजरात पुलिस के ऐविडेंस रखे गये, गुजरात पुलिस का इनवेस्टिगेशन रिपोर्ट रखे गये उसके बाद बीच में सीबीआई आयी, उसको लगा कि इस केस में और कुछ होना चाहिए तो नई चार्ज शीट रखी गई। नये लोगों को फिर से गिरफतार किया गया, नई इनवेस्टिगेशन रिपोर्ट लिखी गई, नये ऐविइेंस रखे गये, एक ही मामले पर दो चार्जशीट। मुम्बई की अदालत ने अपना फैसला सुनाया सजा हुई दोषियों को सजा हुई वहां के इनवेस्टिगेशन रिपोर्ट, वहां के विटनेस वहां की जार्चशीट के कारण, जिसे गुजरात पुलिस ने गिरफतार किया था उसे सजा सुनाई गई। बाद में जो सीबीआई ने लोगों को पकड़ा था, सभी निर्दोष साबित हुये। गुजरात पुलिस की चार्जशीट के आधार पर ही सबको सजा हुई। जिन लोागें को सीबीआई ने गिरतार किया था, उसमें एक को मामूली सजा सुनाई गई, जिसे सीबीआई कहती है कि मेरी जीत हुई है, लेकिन जिस एक सिपाही को सजा हुई है, वह इसलिए कि सीबीआई को उसने बिलकिस बानो प्रकरण से संबंधित सभी कागजात को अंग्रेजी अनुवाद करा कर देने में विलंब कर दिया था। इसी कारण इसे सजा सुनाई गई्र। कांग्रेस की नीति आरंभ से ही भाजपा शासित राज्यों व पार्टी नेताओं को बदनाम करने की रही है।, लेकिन बहुत प्रयास करने के बावजूद वह इस घिनौने कार्य में सफल नहीं रही है। बहरहाल कांग्रेस की जो नीति रही है, वह देश में अलगावाद, आतंकवाद, नक्सलवाद, की समस्या को समाधान करने के स्थान पर भाजपा के मंत्रियों, विधायकों, और वहां की सरकार को बदनाम करने की। कांग्रेस अजमेर बम बलास्ट में संघ के अंद्रेश कुमार का नाम खसीदना चाहती है, वह अपने लोागें को बता रही है संध देश में आतंकवादी कार्रवाही में संलग्न है। लेकिन इस वर्तमान सरकार को यह पता होना चाहिए कि संघ पर इसके पहले भी नेहरु, इंदिरा ने बदनाम करने का प्रयास व उसे प्रतिबंधित किया था। लेकिल उसका निष्कर्ष क्या निकला, सभी को पता है।

गुरुवार, 12 फ़रवरी 2009

जमीन कहां है बताइये, साइन कर देंगे

जमीन कहां है बताइये, साइन कर देंगे
एस.ए.शाद, पटना : यह मंत्र मैं सतत याद रखता हूं कि हवा, पानी और सूर्य की रोशनी के समान जमीन भी भगवान की देन है। अत: उसपर सभी का अधिकार है। --- संत विनोबा भावे उनकी इसी सोच ने देश में व्यापक रूप लेकर लाखों गरीबों के मन में एक उम्मीद जगाई। परन्तु कुछ सपने कभी सच नहीं होते। संत की संवेदना पर सरकारी तंत्र की बेरुखी हमेशा की तरह हावी हो गयी। बड़े उत्साह से उन्होंने प्रदेश में भी भूदान आंदोलन चलाया। देने वालो ने दिल खोल कर जमीन दान दी। परन्तु इस आंदोलन से मिली 2.62 लाख एकड़ जमीन हवा हो गयी। इनका अता-पता भूदान यज्ञ समिति 55 सालों बाद भी मालूम नहीं कर सकी है। भूदान आंदोलन में संत विनोबा भावे को प्रदेश में बहुत सम्मान मिला। भूदान के लिए सरकार ने 1954 में अलग से कानून बनाया। गरीब भूमिहीनों में बांटने के लिए भूदान में 6.48 लाख एकड़ जमीन दान स्वरूप मिली। परन्तु इसमें से 2.62 लाख एकड़ जमीन कहां है, यह भूदान यज्ञ समिति अब तक पता नहीं लगा पाई है। संत की एक अपील पर उदारता दिखाते हुए हथुआ महाराज ने पचास के दशक में एक लाख एकड़ जमीन दान में दी। दरभंगा महाराज ने तो और भी दरियादिली दिखाते हुए 1.25 लाख एकड़ भूमि दान की। इसी प्रकार भागलपुर के राजा कुमार कृष्णानंद सिंह ने पांच हजार एकड़ भूमि दान में दी। लेकिन जिन गरीबों के लिए इतने बड़े- बड़े दान किए गए, उनके बीच इसका पूरा वितरण आज भी नहीं हो सका है, भले ही दान करने वालों को इस असफलता की पीड़ा सताती हो। हथुआ महाराज ने गोपालगंज में एक लाख एकड़ भूमि दान में दी थी जिसमें से केवल 20 हजार एकड़ भूमि का ही विवरण मिल सका है। उनके वंशज दान में दी गयी जमीनों केगरीबों तक न पहुंचने को लेकर आज भी चिंतित हैं। समिति के वर्तमान अध्यक्ष शुभमूर्ति जब उनसे मिलने गए तो उन्होंने हर सहायता का आश्र्वासन दिया। उन्होंने दो टूक कहा-जमीन कहां है, हमें बताइए, हम तुरंत साइन कर देंगे। शुभमूर्ति के पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं है। गरीबों के लिए दान में मांगी गयी जमीन नक्शे से कहां गायब हो गयी इसके बारे में सरकार ने भी कोई ध्यान नहीं दिया। वर्ष 1954 से लेकर 1975 तक प्रदेश में समिति ने दान में प्राप्त 6.42 लाख एकड़ जमीन में से 2.5 लाख एकड़ भूमि का वितरण किया। लेकिन इमरजेंसी के बाद से अब तक समिति भूमिहीनों तक नहीं पहुंच पायी। प्रदेश के विभिन्न जिलों में ऐसे अनेक भूखंड हैं जिनकी सूची तो समिति के पास हैं, परन्तु इसके नक्शे, खाते, खसरे (जमीन के दस्तावेज ) आदि नहीं मिल पाए हैं। यह जमीन किसके कब्जे में है यह भी समिति को पता नहीं। चौंकाने वाल बात तो यह है कि पिछले तीन दशकों में ग्रामीण इलाकों में जमीन को लेकर हुई हिंसक घटनाओं और गरीबों पर अत्याचार के बावजूद भूदान यज्ञ समिति को उपलब्ध फिलहाल 92 हजार एकड़ भूमि का वितरण भूमिहीनों में नहीं किया गया है। क्रमश:

सोमवार, 9 फ़रवरी 2009

सुहानी होने लगी शामें

सुहानी होने लगी शामें लगभग नौ करोड़ की आबादी वाले प्रदेश में कम पूंजी निवेश, बढ़ती बेरोजगारी, 47।53 प्रतिशत साक्षरता, भूमि विवाद, अपेक्षाकृत कम प्रति व्यक्ति आय, बुनियादी सुविधाओं का अभाव आदि ऐसे कई समाजार्थिक कारण हैं, जिनसे अपराध की घटनाएं बढ़ती रही हैं। अपराध मुक्त राज्य एक आदर्श स्थिति की कल्पना है, इसलिए सरकारें इस दिशा में बढ़ने का प्रयास करती हैं। उनका कामकाज सबसे पहले इसी पैमाने पर मापा जाता है। अपराध नियंत्रण के लिए अच्छी पुलिसिंग के साथ-साथ त्वरित न्याय देने वाली प्रणाली जरूरी होती है। राजग सरकार ने इन दोनों मोर्चे पर व्यवस्थागत खामियां दूर करने के लिए ठोस काम किये हैं। पुलिस की कमान बेहतर हाथों में सौंपना, सैप का गठन, राजनीतिक हस्तक्षेप की प्रवृत्ति पर अंकुश, जवानों का मनोबल ऊंचा रखने वाले उपाय, नयी भर्ती की पहल आदि कई काम पिछले तीन साल में हुए हैं। दूसरी तरफ स्पीडी ट्रायल (त्वरित न्याय) पर जोर दिया गया। पुलिस मुख्यालय ने जो आंकड़े जारी किए हैं, उसके अनुसार जनवरी-09 में 1387 लोगों को विभिन्न अपराधों में सजा सुनायी गयी। इनमें 195 लोगों को आजीवन कारावास की सजा हुई। अकेले पटना जिले में 115 लोगों को सजा सुनायी गयी। नालंदा दूसरे स्थान पर रहा। वहां 107 लोगों को सजा हुई। इसके बाद भोजपुर जिले में 87, सिवान में 81 और मुजफ्फरपुर में 80 लोगों को विभिन्न अपराधों में सजा हुई। 2006 से अब तक स्पीडी ट्रायल के तहत 30,086 लोग सजायाफ्ता हुए। इनमें 83 लोगों को मृत्युदंड और 6059 लोगों को आजीवन कारावास की सजा सुनायी गयी है। इस मुद्दे की गंभीरता इसी से समझी जा सकती है कि खुद मुख्यमंत्री के स्तर से ट्रायल के आंकड़ों की समीक्षा (मानिटरिंग) होती रही है। कोर्ट में पुलिस अफसरों की गवाही के लिए मुख्यालय ने अलग से व्यवस्था की है। कंप्यूटर में सभी अधिकारियों का पूरा ब्योरा उपलब्ध है। जिनकी जरूरत गवाही के लिए होती है, उनका पता लगाने में परेशानी नहीं होती। दोषी को जल्द से जल्द सजा दिलाने के ऐसे प्रयास इतने व्यापक स्तर पर पहले कभी नहीं होते दिखे थे, इसलिए अपराध करना आसान हुआ करता था। अब ऐसा नहीं है। यदि गांव की पगडंडी से लेकर शहर के माल तक निरापद शामें सुहानी और रातें उत्सवी होने लगी हैं, तो इसके पीछे सिर्फ फागुन का असर नहीं है। भयमुक्त वातावरण बनाने के लिए कुछ महकमों को निश्चय ही पसीना बहाना पड़ा होगा। यह जज्बा बना रहा, तो फिजा ठहर सकती है। राहुल गांधी के नेक विचार कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी की इस साहसिक और ईमानदारी भरी टिप्पणी के लिए सराहना की जानी चाहिए कि आज की राजनीति में केवल उन्हें ही मौका मिल पाता है जो ऊंची पहुंच, पैसे वाले या फिर सिफारिशी होते हैं। करीब-करीब सभी राजनीतिक दलों में ऐसा ही होता है, लेकिन कोई भी राहुल गांधी की तरह सच्चाई बयान करने के लिए तैयार नहीं। उलटे अब तो ऐसे ही लोगों को अहमियत दी जा रही है जो चापलूस अथवा सिफारिशी होते हैं। यही कारण है कि टिकट बिकने के आरोप रह-रह कर सामने आ रहे हैं। राहुल गांधी के इस विचार से शायद ही कोई असहमत हो सके कि जब तक सिफारिश और चापलूसी के जरिये आगे बढ़ने की प्रवृत्ति को रोका नहीं जाता तब तक युवाओं की राजनीति में सही भागीदारी नहीं होगी, लेकिन यह भी स्पष्ट है कि केवल सच को स्वीकार करने से समस्या का समाधान नहीं होने वाला। राजनीति में चापलूसी और सिफारिशी प्रवृत्ति ने एक बड़ी विकृति का रूप ले लिया है। इसे किसी भी किस्म की संस्कृति की संज्ञा तो दी ही नहीं जा सकती। यह तो संस्कृति शब्द का अपमान है। भारतीय राजनीति चापलूसी और सिफारिश के साथ अन्य अनेक विकृतियों से भी ग्रस्त है। ये इतनी गहरे पैठ गई हैं कि अपील, आह्वान आदि करने से कुछ भी होने वाला नहीं है। इन विकृतियों के कारण ही राजनीति में न तो सही सोच वाले युवाओं की भागीदारी हो पा रही है और न ही अन्य वर्गो के लोगों की। विडंबना यह है कि एक ओर इन विकृतियों को हर संभव तरीके से संरक्षण दिया जा रहा है और दूसरी ओर यह रट भी लगाई जा रही है कि अच्छे लोग राजनीति में भागीदारी करने के लिए आगे आएं। आखिर जब ऐसे लोगों के लिए कोई प्रवेश द्वार ही नहीं है तो फिर वे राजनीति में आगे कैसे बढ़ सकते हैं? यह शुभ संकेत है कि युवा राजनीतिक शक्ति के संभावना भरे प्रतीक राहुल गांधी सही सोच रखने के साथ उसे बेहिचक बयान भी कर रहे हैं, लेकिन बात तब बनेगी जब वह सबसे पहले अपने दल में व्याप्त चापलूसी एवं सिफारिशी प्रवृत्ति को दूर करने में समर्थ हो जाएंगे। यह आसान कार्य नहीं, क्योंकि यह वह दौर है जब किस्म-किस्म की राजनीतिक मजबूरियों की आड़ में तरह-तरह की विकृतियों को बल प्रदान के साथ उन्हें परंपरा का भी रूप दिया जा रहा है। यद्यपि राहुल गांधी अपने स्तर पर युवाओं के लिए गुंजाइश बनाने में लगे हुए हैं, लेकिन अभी तक उन्होंने जो प्रयास किए हैं वे बहुत उम्मीद नहीं जगाते। दरअसल राजनीतिक बुराइयों को समाप्त करने के लिए किसी क्रांतिकारी पहल की दरकार है। इस पहल को आक्रामकता के साथ आगे बढ़ाने की जरूरत है, क्योंकि तभी उस ढांचे को हिलाया जा सकता है जिसमें राजनीतिक विकृतियों को संस्कृति मानकर संरक्षण दिया जा रहा है। राहुल गांधी इसके पहले भी अनेक मुद्दों पर सही सोच सामने रख चुके हैं। कुछ समय पहले उन्होंने यह कहा था कि अब तो रुपये में पांच पैसे भी निर्धारित मद में खर्च नहीं हो रहे हैं। उनके इस कथन ने हलचल तो खूब पैदा की थी, लेकिन नतीजा ढाक के तीन पात वाला रहा। बेहतर होगा कि राहुल गांधी अपने नेक विचारों पर अमल भी करके दिखाएं। वस्तुत: तभी वह करिश्माई नेतृत्व की कसौटी पर खरे उतर सकेंगे और इसमें दो राय नहीं कि आज देश को ऐसे ही नेतृत्व की सख्त जरूरत है।स्त्र चेतना व्यक्तित्व का निर्धारण करती है मंगलवार 10 फरवरी 2009 : फाल्गुन कृष्ण

रविवार, 8 फ़रवरी 2009

हिंदू सभ्यता का प्रवाह अपने मूल रूप में जीवंत है।

भूमंडल पर केवल भारतवर्ष एक ऐसा राष्ट्र है जहां सैंकड़ों वर्ष के निरंतर आघात के बाद आज भी हिंदू सभ्यता का प्रवाह अपने मूल रूप में जीवंत है। यह पृथ्वी पर हिंदुओं की आदि काल से सर्वमान्य पुण्य भूमि है। देश बंटा, हिंदू घटा, फिर भी अवशिष्ट राष्ट्र में हिंदू समाज प्रतिरोध की शक्ति बचाए हुए है। जब हिंदू समाज लगातार आक्रमणों का शिकार होता रहा तब क्या विभाजित देश में उसे अपनी परंपराओं और संस्कृतिक, धार्मिक आस्थाओं के रक्षण का अधिकार नहीं होना चाहिए? क्या हजार वर्ष के प्रतिरोध का प्रतिफल यह नहीं होना चाहिए कि भारत की राजनीति प्रथमतया राष्ट्रीय सभ्यता के मूल तत्वों एवं उसके घटकों की रक्षा हेतु सिद्ध हो? इस सभ्यतामूलक राजनीतिक प्रवाह के अन्यतम व्याख्याता पं. दीनदयाल उपाध्याय थे, जिनकी सिर्फ 52 वर्ष की आयु में 11 फरवरी 1968 को मुगलसराय के पास रेलगाड़ी में प्रवास करते हुए हत्या कर दी गई थी। उनका कहना था, पश्चिम के अर्थ में, सेक्युलर स्टेट का अर्थ लौकिक राज्य ही लगाया जा सकता है, किंतु भारतीय जनता धर्म-राज्य या राम-राज्य की भूखी है और वह केवल लौकिक उन्नति में ही संतोष नहीं कर सकती। भारतीयता की स्थापना भी केवल एकांगी उन्नति से नहीं हो सकती, क्योंकि हमने लौकिक और पारलौकिक उन्नति को एक दूसरे का पूरक ही नहीं, एक दूसरे से अभिन्न माना है। पारलौकिक उन्नति के क्षेत्र में राज्य की ओर से किसी एक मत की कल्पना अनुचित होगी। उसके द्वारा ऐसा वातावरण उत्पन्न करना होगा जिसमें सभी मत बढ़ सकें तथा एकं सद्विप्रा: बहुधा वदंति के सिद्धांत का पालन कर सकें। विडंबना है कि आज अधिकांश राजनीतिक दल, भारतीय होते हुए भी इस राष्ट्र की मूल सभ्यता के प्रवाह से न केवल कट गए हैं, बल्कि अपने तात्कालिक राजनीतिक उद्देश्यों के लिए उसके स्वरूप पर आघात करने से संकोच नहीं करते। कश्मीर में सौ से अधिक प्राचीन मंदिरों का ध्वंस, राममंदिर निर्माण के लिए सर्वदलीय सहमति का अभाव, रामसेतु भंजन के लिए सक्रिय सत्ता का राम के अस्तित्व से इनकार, हिंदुओं के मतांतरण पर मौन और हिंदू संवेदनाओं के विषय जैसे गोहत्या पर रोक के बजाय अहिंदू वर्ग को हिंदू हितों की कीमत पर प्रोत्साहन दास मानसिकता के द्योतक हैं। दीनदयाल उपाध्याय इस मानसिकता के विरूद्ध राष्ट्रीयता का घोष बने। उनका कहना था, हमारी आत्मा ने अंग्रेजी राज्य के प्रति विद्रोह केवल इसलिए नहीं किया कि दिल्ली में बैठकर राज्य करने वाला एक अंग्रेज था, अपितु इसलिए भी कि हमारे जीवन की गति में विदेशी पद्धतियां और रीति-रिवाज, विदेशी दृष्टिकोण और आदर्श अड़ंगा लगा रहे थे, हमारे संपूर्ण वातावरण को दूषित कर रहे थे, हमारे लिए सांस लेना भी दूभर हो गया था। इस राजनीति के उत्तराधिकारी अटल बिहारी वाजपेयी बने। उनके मन में दीनदयाल जी के प्रति सदा भक्ति भाव दिखा। पां†जन्य में उन्हें भाऊराव देवरस और दीनदयाल जी ही लाए थे। हिंदू तन मन, हिंदू जीवन, रग रग हिंदू मेरा परिचय तथा गगन में लहराता है भगवा हमारा जैसे प्रसिद्ध गीतों की रचना कर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से प्रेरित प्रखर सभ्यतामूलक राष्ट्रीयता का वही प्रवाह अटल जी ने आगे बढ़ाया जो उनको दीनदयाल जी से मिला था। संघ संस्थापक डा. हेडगेवार का स्मरण करते हुए अटल जी का एक प्रसिद्ध गीत आज भी सरसंघचालक श्री सुदर्शन बड़ी तन्मयता से सुनाते हैं। इसकी प्रथम पंक्ति है: केशव के आजीवन तप की, यह पवित्रतम धारा/ साठ सहस ही नहीं तरेगा इससे भारत सारा! छह वर्ष के वाजपेयी राज में सैन्य शक्ति संव‌र्द्धन, ढ़ांचागत सुविधाओं का असाधारण सृजन और ग्रामीण विकास के क्षेत्र में नए कीर्तिमान स्थापित हुए। उन्होंने उपाध्याय जी की जन्मस्थली नगला चंद्रभान में ग्रामीण विकास के नए प्रयोगों को प्रोत्साहित किया। इस परिदृश्य में वर्तमान दलों को देखें तो क्या भाजपा या वाम दलों के अतिरिक्त किसी अन्य दल की कोई वैचारिक निष्ठा कही जा सकती है? केवल व्यक्ति केंद्रित राजनीति का निजी अभीप्साओं के लिए इस प्रकार उपयोग करना जैसे कोई व्यापारी किसी उद्यम में मुनाफे की लालसा से पूंजी निवेश करे, वैसे ही राजनीति में धन लगाकर धन कमाने का चलन बढ़ चला है। जब तक भारत का मन सुरक्षित रहा, बाहरी आक्रमणों को हमने अपनी काया पर झेला और भारतीय जनता को स्वत्व रक्षा के लिए सन्नद्ध किया। अब यदि मन ही धन के प्रभाव में बदल जाए, वह रामचरित मानस में शक्ति का स्रोत ढूंढ़ने के बजाय पब-संस्कृति में स्त्री-स्वातं˜य का दर्शन करने लगे तो भारतीय काया को प्रतिरोध हेतु प्रेरित कौन करेगा? भाजपा जैसे दल पर चुनौती केवल उन अभारतीय तत्वों को ही परास्त करने की नहीं है जो एक विद्रूप सेक्युलरवाद के नाम पर भारत के मूल अधिष्ठान पर चोट कर रहे हैं, बल्कि उसे सभ्यता के प्रवाह को संरक्षित करने वाली विचार केंद्रित भारतीय सत्ता स्थापित करनी है। आज भाजपा जिन मूल्यों को लेकर यहां तक पहुंची है उसके पीछे सैकड़ों कार्यकर्ताओं का बलिदान रहा है। वह जिन दो महापुरुषों को प्रेरणास्रोत मानती है उन दोनों का जीवन के उस बिंदु पर हौतात्म्य हुआ जब वे श्रेष्ठतम उत्कर्ष की ओर बढ़ रहे थे। श्यामा प्रसाद मुखर्जी और दीनदयाल उपाध्याय दोनों ही 52 वर्ष की आयु में अकाल मृत्यु का शिकार हुए। जम्मू कश्मीर में तिरंगा लहराने से लेकर अयोध्या और केरल तक दो सौ से अधिक कार्यकर्ता केवल अपनी हिंदुत्वनिष्ठ विचारधारा के कारण मार डाले गए हंै। भाजपा के सत्ता की ओर बढ़ते कदम इन शहीदों के बलिदान से शक्ति पाते हैं। भारतीय राजनीति के इस जंगल में जहां व्यक्ति ही दल बन गया है, केवल कार्यकर्ताओं का बलिदान और संगठनहिताय-तप ही भाजपा को विजय प्राप्त करने का मार्ग दिखा सकता है। वरना इस दौर में राजनीति का अर्थ ही एक दूसरे को गिराना, हतबल करना और खुद सीढ़ी चढ़ने की कोशिश बन गया है। (लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)

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राजनीति का असली उद्देश्य भूमंडल पर केवल भारतवर्ष एक ऐसा राष्ट्र है जहां सैंकड़ों वर्ष के निरंतर आघात के बाद आज भी हिंदू सभ्यता का प्रवाह अपने मूल रूप में जीवंत है। यह पृथ्वी पर हिंदुओं की आदि काल से सर्वमान्य पुण्य भूमि है। देश बंटा, हिंदू घटा, फिर भी अवशिष्ट राष्ट्र में हिंदू समाज प्रतिरोध की शक्ति बचाए हुए है। जब हिंदू समाज लगातार आक्रमणों का शिकार होता रहा तब क्या विभाजित देश में उसे अपनी परंपराओं और संस्कृतिक, धार्मिक आस्थाओं के रक्षण का अधिकार नहीं होना चाहिए? क्या हजार वर्ष के प्रतिरोध का प्रतिफल यह नहीं होना चाहिए कि भारत की राजनीति प्रथमतया राष्ट्रीय सभ्यता के मूल तत्वों एवं उसके घटकों की रक्षा हेतु सिद्ध हो? इस सभ्यतामूलक राजनीतिक प्रवाह के अन्यतम व्याख्याता पं. दीनदयाल उपाध्याय थे, जिनकी सिर्फ 52 वर्ष की आयु में 11 फरवरी 1968 को मुगलसराय के पास रेलगाड़ी में प्रवास करते हुए हत्या कर दी गई थी। उनका कहना था, पश्चिम के अर्थ में, सेक्युलर स्टेट का अर्थ लौकिक राज्य ही लगाया जा सकता है, किंतु भारतीय जनता धर्म-राज्य या राम-राज्य की भूखी है और वह केवल लौकिक उन्नति में ही संतोष नहीं कर सकती। भारतीयता की स्थापना भी केवल एकांगी उन्नति से नहीं हो सकती, क्योंकि हमने लौकिक और पारलौकिक उन्नति को एक दूसरे का पूरक ही नहीं, एक दूसरे से अभिन्न माना है। पारलौकिक उन्नति के क्षेत्र में राज्य की ओर से किसी एक मत की कल्पना अनुचित होगी। उसके द्वारा ऐसा वातावरण उत्पन्न करना होगा जिसमें सभी मत बढ़ सकें तथा एकं सद्विप्रा: बहुधा वदंति के सिद्धांत का पालन कर सकें। विडंबना है कि आज अधिकांश राजनीतिक दल, भारतीय होते हुए भी इस राष्ट्र की मूल सभ्यता के प्रवाह से न केवल कट गए हैं, बल्कि अपने तात्कालिक राजनीतिक उद्देश्यों के लिए उसके स्वरूप पर आघात करने से संकोच नहीं करते। कश्मीर में सौ से अधिक प्राचीन मंदिरों का ध्वंस, राममंदिर निर्माण के लिए सर्वदलीय सहमति का अभाव, रामसेतु भंजन के लिए सक्रिय सत्ता का राम के अस्तित्व से इनकार, हिंदुओं के मतांतरण पर मौन और हिंदू संवेदनाओं के विषय जैसे गोहत्या पर रोक के बजाय अहिंदू वर्ग को हिंदू हितों की कीमत पर प्रोत्साहन दास मानसिकता के द्योतक हैं। दीनदयाल उपाध्याय इस मानसिकता के विरूद्ध राष्ट्रीयता का घोष बने। उनका कहना था, हमारी आत्मा ने अंग्रेजी राज्य के प्रति विद्रोह केवल इसलिए नहीं किया कि दिल्ली में बैठकर राज्य करने वाला एक अंग्रेज था, अपितु इसलिए भी कि हमारे जीवन की गति में विदेशी पद्धतियां और रीति-रिवाज, विदेशी दृष्टिकोण और आदर्श अड़ंगा लगा रहे थे, हमारे संपूर्ण वातावरण को दूषित कर रहे थे, हमारे लिए सांस लेना भी दूभर हो गया था। इस राजनीति के उत्तराधिकारी अटल बिहारी वाजपेयी बने। उनके मन में दीनदयाल जी के प्रति सदा भक्ति भाव दिखा। पां†जन्य में उन्हें भाऊराव देवरस और दीनदयाल जी ही लाए थे। हिंदू तन मन, हिंदू जीवन, रग रग हिंदू मेरा परिचय तथा गगन में लहराता है भगवा हमारा जैसे प्रसिद्ध गीतों की रचना कर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से प्रेरित प्रखर सभ्यतामूलक राष्ट्रीयता का वही प्रवाह अटल जी ने आगे बढ़ाया जो उनको दीनदयाल जी से मिला था। संघ संस्थापक डा. हेडगेवार का स्मरण करते हुए अटल जी का एक प्रसिद्ध गीत आज भी सरसंघचालक श्री सुदर्शन बड़ी तन्मयता से सुनाते हैं। इसकी प्रथम पंक्ति है: केशव के आजीवन तप की, यह पवित्रतम धारा/ साठ सहस ही नहीं तरेगा इससे भारत सारा! छह वर्ष के वाजपेयी राज में सैन्य शक्ति संव‌र्द्धन, ढ़ांचागत सुविधाओं का असाधारण सृजन और ग्रामीण विकास के क्षेत्र में नए कीर्तिमान स्थापित हुए। उन्होंने उपाध्याय जी की जन्मस्थली नगला चंद्रभान में ग्रामीण विकास के नए प्रयोगों को प्रोत्साहित किया। इस परिदृश्य में वर्तमान दलों को देखें तो क्या भाजपा या वाम दलों के अतिरिक्त किसी अन्य दल की कोई वैचारिक निष्ठा कही जा सकती है? केवल व्यक्ति केंद्रित राजनीति का निजी अभीप्साओं के लिए इस प्रकार उपयोग करना जैसे कोई व्यापारी किसी उद्यम में मुनाफे की लालसा से पूंजी निवेश करे, वैसे ही राजनीति में धन लगाकर धन कमाने का चलन बढ़ चला है। जब तक भारत का मन सुरक्षित रहा, बाहरी आक्रमणों को हमने अपनी काया पर झेला और भारतीय जनता को स्वत्व रक्षा के लिए सन्नद्ध किया। अब यदि मन ही धन के प्रभाव में बदल जाए, वह रामचरित मानस में शक्ति का स्रोत ढूंढ़ने के बजाय पब-संस्कृति में स्त्री-स्वातं˜य का दर्शन करने लगे तो भारतीय काया को प्रतिरोध हेतु प्रेरित कौन करेगा? भाजपा जैसे दल पर चुनौती केवल उन अभारतीय तत्वों को ही परास्त करने की नहीं है जो एक विद्रूप सेक्युलरवाद के नाम पर भारत के मूल अधिष्ठान पर चोट कर रहे हैं, बल्कि उसे सभ्यता के प्रवाह को संरक्षित करने वाली विचार केंद्रित भारतीय सत्ता स्थापित करनी है। आज भाजपा जिन मूल्यों को लेकर यहां तक पहुंची है उसके पीछे सैकड़ों कार्यकर्ताओं का बलिदान रहा है। वह जिन दो महापुरुषों को प्रेरणास्रोत मानती है उन दोनों का जीवन के उस बिंदु पर हौतात्म्य हुआ जब वे श्रेष्ठतम उत्कर्ष की ओर बढ़ रहे थे। श्यामा प्रसाद मुखर्जी और दीनदयाल उपाध्याय दोनों ही 52 वर्ष की आयु में अकाल मृत्यु का शिकार हुए। जम्मू कश्मीर में तिरंगा लहराने से लेकर अयोध्या और केरल तक दो सौ से अधिक कार्यकर्ता केवल अपनी हिंदुत्वनिष्ठ विचारधारा के कारण मार डाले गए हंै। भाजपा के सत्ता की ओर बढ़ते कदम इन शहीदों के बलिदान से शक्ति पाते हैं। भारतीय राजनीति के इस जंगल में जहां व्यक्ति ही दल बन गया है, केवल कार्यकर्ताओं का बलिदान और संगठनहिताय-तप ही भाजपा को विजय प्राप्त करने का मार्ग दिखा सकता है। वरना इस दौर में राजनीति का अर्थ ही एक दूसरे को गिराना, हतबल करना और खुद सीढ़ी चढ़ने की कोशिश बन गया है। (लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)