रविवार, 28 सितंबर 2008

  1. संस्थापक ने सिमी से पल्ला झाड़ा
    : प्रतिबंधित स्टू़डेंट्स इस्लामिक मूवमेंट आफ इंडिया (सिमी) के संस्थापक अध्यक्ष ने संगठन से पल्ला झाड़ते हुए कहा है कि उन्हें इसकी मौजूदा गतिविधियों के बारे में कुछ भी मालूम नहीं है। उनका कहना है कि दिल्ली में रह रहे सिमी के कई पूर्व अध्यक्ष इसके बारे में बेहतर जानकारी दे सकते हैं। भारत छोड़कर अमेरिका में बस गए डा. मुहम्मद अहमदुल्ला सिद्दिकी अब वहां सक्रिय हैं। उन्होंने नार्थ अमेरिकन एसोसिएशन आफ मुस्लिम प्रोफेशनल्स एंड स्कालर्स की स्थापना की है जिसके संस्थापक सदस्य होने के साथ ही वह सचिव भी हैं। करीब तीन दशक पहले मुस्लिम समुदाय को शिक्षित और प्रबुद्ध बनाने के मकसद से उन्होंने भारत में सिमी की स्थापना की थी। पुलिस के अनुसार अब सिमी दो भागों में बंटकर आतंकवाद का पर्याय बन चुका है। भारत में हाल में हुए कई सिलसिलेवार बम विस्फोटों में इससे निकले इंडियन मुजाहिदीन का हाथ बताया जाता है। इस एजेंसी ने सिद्दिकी को ई मेल के जरिये कुछ सवाल भेजे थे जिसका उन्होंने संक्षिप्त जवाब भेजा है। इन सवालों के जवाब में उन्होंने कहा कि आपके ई मेल के लिए धन्यवाद। मैं दो दशक से ज्यादा से सिमी के संपर्क में नहीं हूं। मैं नहीं जानता कि (विस्फोटों के) आरोप सही हैं या नहीं। अमेरिका के मैकोम्ब में वेस्टर्न इलिनोइस यूनिवर्सिटी में पत्रकारिता और जनसंपर्क विषय के प्रोफेसर सिद्दिकी ने कहा कि मैं आपके सवालों का जवाब नहीं दे पाऊंगा। उन्होंने हालांकि कहा कि दिल्ली में सिमी के कई पूर्व अध्यक्ष हैं। वे मुझसे बेहतर तरीके से (सिमी के बारे में) रोशनी डाल सकते हैं। उन्होंने 1977 में अलीगढ़ में सिमी की स्थापना की थी। सिद्दकी जनसंचार में स्नातकोत्तर की पढ़ाई करने के लिए 1980 में अमेरिका पहुंचे। उन्होंने यूनिवर्सिटी आफ इलिनोइस से यह पढ़ाई की। उसके बाद 1987 में टेम्पल यूनिवर्सिटी से पीएचडी की। इससे पहले उन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से भौतिक विज्ञान में पीएचडी किया। सिद्दीकी को सवाल देशभर में हाल में हुए विस्फोटों खासकर राजधानी में 13 सितंबर के सिलसिलेवार विस्फोटों के षडयंत्र के शक की सुई सिमी के इर्द गिर्द घूमने और 19 सितंबर को राजधानी दिल्ली में संदिग्ध सिमी कार्यकर्ताओं के साथ पुलिस मुठभेड़ के बाद भेजे गए थे।
आतंकवाद को ना कह रही है सरकार : आडवाणी
मुरादाबाद, जागरण संवाददाता : भारतीय जनता पार्टी के पीएम इन वेटिंग एवं देश के पूर्व उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने आतंकवाद और महंगाई को केंद्र में रखकर केंद्र सरकार पर जमकर निशाना साधा। साथ ही राम मंदिर की चर्चा कर यह भी एहसास कराया कि राम मंदिर पार्टी एजेंडे से बाहर नहीं हुआ है। आडवाणी शनिवार को मुरादाबाद के रामलीला मैदान में भाजपा की विजय संकल्प रैली को संबोधित कर रहे थे। संबोधन के बीच दिल्ली के महरौली क्षेत्र में बम विस्फोट की खबर मिलने के साथ आतंकवाद पर उनके तेवर और तल्ख हो गए। उन्होंने कहा कि सरकार पोटा को नहीं, आतंकवाद को नजरअंदाज कर रही है। पोटा की वकालत करते हुए उन्होंने कहा कि भाजपा और एनडीए घटक दलों ने काफी मेहनत से इस कानून को आगे बढ़ाया। मुंबई की ट्रेनों में आतंकी विस्फोट व संसद के हमलावरों को पोटा की बदौलत ही नियंत्रित किया जा सका। कांग्रेस पर कटाक्ष करते हुए उन्होंने कहा कि लोकतंत्र और परिवारवाद साथ नहीं चल सकते। करीब 40 मिनट के संबोधन में उन्होंने लोकसभा चुनाव में मुद्दे की शक्ल लेने वाले हर बिंदु को छुआ। गन्ना मूल्य और गरीबी की बात करके जहां किसानों को रिझाया, वहीं महंगाई, आतंकवाद से बढ़ रही असुरक्षा की भावना का जिक्र करके महिलाओं को जोड़ने की कोशिश की। आतंकवाद रोकने के लिए कठोर कानून तो होना चाहिए मगर पोटा नहीं, प्रधानमंत्री के बयान इस पर आडवाणी ने सवाल उठाया। उन्होंने कहा कि ऐसे प्रधानमंत्री और सरकार से क्या उम्मीद की जा सकती है। देश के 14 लोकसभा चुनाव और 14 प्रधानमंत्रियों के साथ अपने कार्य अनुभवों को गिनाते हुए आडवाणी ने वर्तमान सरकार और प्रधानमंत्री को सबसे अक्षम बताया। साथ ही आरोप लगाया कि सरकार बचाने के लिए प्रधानमंत्री आतंक विरोधी कठोर कानून से बच रहे हैं। देश हित में इस चुनाव से खुलकर जुड़ने का आह्वान करते हुए उन्होंने कहा कि यह स्वराज की कल्पना वाले भारत के विजय की संकल्प रैली है। किसी को प्रधानमंत्री बनाने की संकल्प रैली नहीं। जाते-जाते उन्होंने अयोध्या में राम जन्मभूमि पर ही भव्य राममंदिर का निर्माण होने की इच्छा भी जताई। कहा, राम जन्मभूमि पर जब तक भव्य राममंदिर का निर्माण नहीं होगा तब तक हमारा सपना साकार नहीं होगा। मंदिर

मंगलवार, 23 सितंबर 2008

आतंकवाद की घटना पर नपेंगे अफसर

दो गैराज मिस्ति्रयों ने बिगाड़ी पूर्वाचल की तस्वीर
आनन्द राय, गोरखपुर देश भर में आतंकी विस्फोट के चलते आजमगढ़ का नाम सुर्खियों में है। पूर्वाचल का यह जनपद अब आतंक के पावर हाउस के रूप में उभरा है। जागरण ने 19 अगस्त 2001 को ही अबू और दाऊद ने आजमगढ़ में देशद्रोहियों की फौज खड़ी की शीर्षक से एक रपट प्रकाशित की। इसमें यहां आतंकी प्रशिक्षण देने का उल्लेख था। सच कहें तो आजमगढ़ ही नहीं पूरे पूर्वाचल में आतंकवाद की जड़ें गहरा गयीं हैं। दो गैराज मिस्ति्रयों ने देशद्रोही ताकतों के हाथों का खिलौना बनकर पूर्वाचल की तस्वीर बिगाड़ दी। पूर्वाचल में आतंक की आमद के मुख्य सूत्रधार रहे मिर्जा दिलशाद बेग और अबू सलेम का कैरियर गैराज मिस्त्री से शुरू हुआ। अण्डरव‌र्ल्ड और आईएसआई के हाथों की कठपुतली अबू सलेम आजमगढ़ के सरायमीर का रहने वाला है जबकि मरहूम मिर्जा दिलशाद वेग का पैतृक गांव देवरिया के रुद्रपुर क्षेत्र का भैंसही है। अयोध्या में विवादित ढांचा ध्वंस के बाद जब आतंकी गतिविधियां तेज हुई तब पहला धमाका 26 जनवरी 1993 को गोरखपुर के मेनका थियेटर में हुआ। मिर्जा दिलशाद बेग, गोरखपुर के गामा, नफीस और जिलानी द्वारा कराये इस विस्फोट में दो लोग मारे गये और कई घायल हुए। कोतवाली थाने में दर्ज मुकदमे की तफ्तीश में तब यह बात आयी कि दाऊद और आईएसआई के हाथों में खेल रहे मिर्जा ने गोरखपुर, आजमगढ़, देवरिया समेत पूर्वाचल के कई जिलों के युवाओं को आतंकी गतिविधियों से जोड़ दिया है। 17 दिसम्बर 1996 को जब काठमाण्डू के एक होटल से 20 किलोग्राम आरडीएक्स के साथ मंजूर अहमद नामक युवक की गिरफ्तारी हुई तब उसने पूर्वाचल में आतंक फैलाने की मिर्जा की योजनाओं का खुलासा किया। जिंदा रहने तक मिर्जा ने मुम्बई बम काण्ड से लेकर अण्डरव‌र्ल्ड के भगोड़ों को नेपाल में पनाह दी और पूर्वाचल में कई आपराधिक गतिविधियों को अंजाम दिलाया। अबू सलेम के माध्यम से आजमगढ़ के कई युवक गुनाह के दलदल में चले गये। यहीं के सादिक, इश्तियाक समेत कई लड़कों की गिरफ्तारी अबू का साथ निभाने में हुई। 19 अगस्त 2001 को जागरण में छपी रिपोर्ट में आजमगढ़ में सिमी की गतिविधियों और आतंकी प्रशिक्षण का भी उल्लेख है। यह भी कि 1984 में ही आजमगढ़ जिले के घोसी कोतवाली के मानिकपुर ... शेष पृष्ठ 16 पर

गुरुवार, 18 सितंबर 2008

निष्कि्रयता का नया प्रमाण


जिन खास कारणों से आतंकवाद पर लगाम नहींलग पा रही उन्हें रेखांकित कर रहे हैं राजनाथ सिंह सूर्य

निष्कि्रयता का नया प्रमाण कुछ घटनाएं ऐसी होती हैं जो आगे चलकर बड़े संकट का सबब बन जाती हैं। उन पर तत्काल ध्यान नहीं दिया जाना इसका मुख्य कारण होता है। ऐसी ही एक घटना है उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के मौलवीगंज से सिमी प्रमुख शहबाज की गिरफ्तारी के पूर्व गुजरात के गृहमंत्री अमित शाह का केंद्रीय गृहमंत्री शिवराज पाटिल से फोन पर किया गया यह अनुरोध कि वह मुख्यमंत्री मायावती से संपर्क कर इस व्यक्ति के बारे में मिली सूचनाओं की छानबीन का अनुरोध करें। शिवराज पाटिल ने अमित शाह की बात इस कान से सुनकर उस कान से निकाल दी। यदि गुजरात की पुलिस ने उत्तर प्रदेश की पुलिस से सीधा संपर्क न किया होता तो शायद शहबाज गिरफ्तार न होता। इस घटना से दो महत्वपूर्ण प्रश्न उभरते हैं, जो हमारी व्यवस्था में खतरनाक राजनीतिक राग-द्वेष के कारण उत्पन्न घातक स्थिति को उजागर करते हैं।
शिवराज पाटिल अपने दायित्व के प्रति कितने जिम्मेदार हैं, इसके कई सबूत सामने आ चुके हैं। चाहे आतंकियों से निपटने के लिए कई राज्यों द्वारा बनाए गए कानूनों को स्वीकृति देने का मामला हो या फिर पाकिस्तान की जेल में बंद सरबजीत और संसद पर हमले के आरोप में फांसी की सजा पाए अफजल के मामले की तुलना हो-उनके चौंकाने वाले कथनों की लंबी फेहरिश्त है। अमित शाह और शिवराज पाटिल के वार्तालाप और उसके उपसंहार के जो समाचार प्रकाशित हुए हैं उससे जहां भारत सरकार के प्रमुख कर्णधारों की जिम्मेदारी के प्रति गंभीरता का पता चलता है वहीं एक संवैधानिक सवाल भी खड़ा हो जाता है। शिवराज पाटिल ने मायावती से क्यों बात नहीं की? क्या उन्हें भय था कि ऐसा करने पर उनकी संरक्षक नाराज हो जाएंगी या फिर उन्होंने इस मामले को बहुत मामूली समझ लिया? हमारी जो संघात्मक व्यवस्था है उसमें केंद्र राज्यों के बीच सेतु का दायित्व निभाता है। एक राज्य से दूसरे राज्य के संबंधों और समस्याओं को निपटाने में केंद्र मध्यस्थता और सहायक की भूमिका निभाता है। शिवराज पाटिल की कार्यप्रणाली और गुजरात पुलिस के उत्तर प्रदेश पुलिस से सीधे संपर्क से केंद्र की भूमिका पर प्रश्नचिह्न खड़ा हो गया है। मैं शिवराज पाटिल के व्यक्तित्व पर विवाद नहीं करना चाहता, लेकिन प्रत्येक नागरिक को यह जानने का हक तो है ही कि हमारे देश का गृहमंत्री संविधान की मर्यादाओं का पालन कर रहा है या नहीं? अब तक इसका सकारात्मक उत्तर नहीं मिला है। शायद यही कारण है कि किसी अरुंधति राय को कश्मीर की आजादी की वकालत करने का हक मिल गया है। शायद इसी आचरण का प्रभाव है कि देश के एक छोटे से भाग में पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे के साथ प्रदर्शन होता है, शायद इसी आचरण का परिणाम है कि पाकिस्तान के हस्तक बनकर देश भर में विस्फोटों से अराजकता उत्पन्न करने वाले के प्रति सहानुभूति प्रगट करने का सिलसिला चल निकला है। शायद यही कारण है कि जहां केंद्रीय प्रशासन तंत्र सिमी पर प्रतिबंध जारी रखने के लिए सर्वोच्च न्यायालय में पैरवी कर रहा है वहीं केंद्रीय मंत्रिमंडल के कुछ सदस्य खुलेआम इस संगठन को देशभक्ति का प्रमाणपत्र दे रहे हैं।
केंद्रीय गृहमंत्री असम में बांग्लादेशी घुसपैठियों के बारे में अदालती समीक्षा को भी स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं। दलीय आधार पर केवल कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों का सम्मेलन बुलाकर जो शुरुआत संप्रग सरकार ने की उसका परिणाम यह हुआ कि भाजपा ने भी अपने मुख्यमंत्रियों का सम्मेलन बुला लिया। हमारी अवधारणा है कि चाहे केंद्र हो या राज्य, लोकतांत्रिक व्यवस्था के अंतर्गत किसी न किसी दल के नेतृत्व में सरकार बनती है, लेकिन सरकार राजनीतिक दल की नहीं होती। मनमोहन सरकार ने इस मान्यता को ही ध्वस्त कर दिया। राष्ट्रीय परिषद या इसी प्रकार की वे संस्थाएं जो संघात्मक ढांचे को एकात्मता के सूत्र में बांधे रखने के लिए हैं, विलुप्त होती जा रही हैं। संसद, जहां देश भर की समस्याओं का संज्ञान लिया जाता है, निष्प्रभावी कर दी गई है। गृह मंत्रालय ने जम्मू को जलने और कश्मीर के उन्मादियों को देशघाती अभियान चलाने का मौका क्यों दिया? क्या देशद्रोह से भी बड़ा कोई अपराध हो सकता है और क्या देश से अलग होने के हक की वकालत करने वालों से बड़ा कोई अपराधी है? इन अपराधियों से क्यों नहीं निपटा जा रहा? कुछ लोगों के इस आकलन से सहमत हुआ जा सकता है कि शिवराज पाटिल भले ही गृहमंत्री हों, लेकिन दायित्व निर्वहन के मामले में पद के अनुरूप उनकी हैसियत नहीं स्थापित हो पाई है। यही बात प्रधानमंत्री के बारे में भी कही जाती है तो फिर प्रश्न यह उठता है कि जिसकी हैसियत है वह कौन है? संविधान में प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और उनके सहयोगियों की ही हैसियत का प्रावधान है। यदि कोई गैर सांविधानिक हैसियत है तो क्यों है और फिर क्या इन सभी स्थितियों के लिए उसे जिम्मेदार ठहराना चाहिए? विधान तो उन्हें जिम्मेदार मानता है जो संबंधित दायित्व के निर्वहन की शपथ लेते हैं।
केंद्रीय प्रशासन तंत्र के उपयोग और उसके कार्य करने की व्यवस्था पर इतने प्रश्नचिह्न पहले कभी नहीं लगे थे जितने अब लगे हैं। इस स्थिति में मुख्यमंत्रियों से प्रशासनिक मामले में तथा नीतियों पर अमल को लेकर संपर्क करने में गृह मंत्रालय अपने दायित्व निर्वहन में पूर्णत: असफल साबित हुआ है। इसी का परिणाम है कि न केवल देश घाती गतिविधियों में इजाफा हुआ है, बल्कि इन गतिविधियों में संलग्न लोगों के प्रति मजहबी आधार पर सहानुभूति बटोरने के प्रयास थामे नहीं थम रहे। विडंबना यह है कि गृह मंत्रालय को संचालित करने वाले राजनीतिक पदधारक अपने ही तंत्र की सूचनाओं, आकलन और तथ्यपरक जानकारियों के अनुरूप आचरण का साहस नहीं जुटा पा रहे हैं। विश्व के किसी भी सार्वभौमिक सत्ता वाले स्वतंत्र देश में ऐसी निष्कि्रयता का उदाहरण नहीं मिलेगा।

शनिवार, 13 सितंबर 2008

शांति के लिए जरूरी शर्त



पाकिस्तान के अस्थिर होने से भारत की अनेक समस्याएं समाप्त होती देख रहे हैं भरत वर्मा

शांति के लिए जरूरी शर्त भारतीय ही भारत के लिए सबसे बड़ी चुनौती हैं। कारण बिल्कुल सीधा है। एक औसत भारतीय राष्ट्र का निर्माण नहीं करता। वह केवल अलग-थलग रहता है। उसके लिए व्यक्तिगत लाभ तमाम अन्य प्रयोजनों, जिनमें राष्ट्रीय हित भी शामिल हैं, पर भारी पड़ते हैं। इसीलिए बहुत से लोग अपने विचारों में कश्मीर के अलग होने का राग अलापने लगे हैं। अगर उनकी व्यक्तिगत संपत्ति या परिजन आतंकियों द्वारा बंधक बना लिए जाते तो उनके द्वारा मचाई जाने वाली हायतौबा का अनुमान लगाया जा सकता है। दरअसल पिछले साठ सालों में भारत संघ को मजबूत करने के बजाय राजनेता वोट बैंक को बढ़ाने के लिए पंथऔर जाति के आधार पर समाज में भेद पैदा करने में लगे रहे। देश के नागरिकों को एकता के सूत्र में बांधने तथा उनके लिए विकास के रास्ते खोलने के बजाए उन्होंने गहरी संकीर्णता दिखाई। परिणाम यह हुआ कि सत्ता के खिलाफ अलग-अलग गुट खड़े हो गए। अधिकांश ने आर्थिक तंगी और न्याय न मिलने के कारण यह रास्ता अपनाया। इन असंतुष्ट समूहों का फायदा भारत विरोधी बाहरी शक्तियां उठा रही हैं।
अनेकता में कभी एकता नहीं हो सकती। एकता के लिए पूरे संघ में काफी हद तक समान कानून की जरूरत पड़ती है। नई दिल्ली तब से खुद अपनी दुश्मन बन बैठी है जब से इसने विशुद्ध मुस्लिम राष्ट्र का निर्माण होने दिया। अगर पाकिस्तान के गठन के बाद से भारत चैन से पलक तक नहीं झपका पाया है तो इसका दोष किसी और के नहीं, बल्कि खुद अपने मत्थे मढ़ना होगा। भारत पर युद्ध थोपने के अलावा पाकिस्तान ने अपना तथाकथित इस्लामिक एजेंडा कश्मीर घाटी में आगे बढ़ाया। स्थानीय लोगों की सहायता से उसने कश्मीर में अल्पसंख्यक समुदायों की विशिष्ट संस्कृति का सफाया कर डाला। अपने वोट बैंक को मजबूत करने के लिए भारतीय नेतृत्व ने इन शत्रु शक्तियों को असम में बांग्लादेशी घुसपैठियों का पक्षधर कानून लाने में सहयोग दिया। बाद में उच्चतम न्यायालय द्वारा अवैध ठहराने के बाद इस पर रोक लगी, किंतु तब तक नुकसान हो चुका था। करीब डेढ़ करोड़ बांग्लादेशी घुसपैठियों ने समाज में अशांति मचा दी। बीजिंग की शह पर इस्लामाबाद, ढाका और अब काठमांडू के पास एकसूत्रीय काम है-घाटी और पूर्वोत्तर को भारत से अलग करना। इसके अलावा वे माओवादियों को सहायता पहुंचा रहे हैं, जो भारत के करीब 40 फीसदी भूभाग में फैल चुके हैं। नई दिल्ली की विचित्र नीतियों ने अलगाववाद को बढ़ावा दिया है। भारतीयों को घाटी और पूर्वोत्तर में जमीन खरीदने और उद्योग-धंधे विकसित करने के लिए प्रोत्साहन देने के बजाए इस तरह की गतिविधियों पर प्रतिबंध लगा दिए गए। दूसरी तरफ पाकिस्तान और बांग्लादेश ने सोची-समझी रणनीति के तहत वहां कट्टरपंथियों को बसा दिया। कर्तव्य निभाने में विफल भारतीय संघ के कारण ही घाटी में विरोध प्रदर्शन का बदसूरत अलगाववादी चेहरा दिखाई पड़ रहा है। घाटी को भारत की मुख्यधारा में लाने और देश की अखंडता बनाए रखने के लिए नीतियों में आमूल-चूल बदलाव की आवश्यकता है। हमेंउद्योगीकरण के साथ-साथ वहां पंथनिरपेक्ष मिली-जुली आबादी को बसाना होगा।
बहुत से लोग अपनी सुविधा के हिसाब से इस मिथक में विश्वास व्यक्त करते हैं कि पाकिस्तान में स्थिरता भारत के पक्ष में है। यह गलत अवधारणा है। सच्चाई यह है कि 1947 से ही भारतीय संघ के लिए पाकिस्तान एक बुरी खबर रहा है-चाहे वह स्थिर रहा हो या अस्थिर। अस्तित्व के साठ साल के दौरान पाकिस्तान में स्थिरता के संक्षिप्त कालखंड ही देखने को मिले हैं। स्थिरता के इन चरणों में पाकिस्तान आतंकवाद, नकली नोट के कारोबार तथा नशीले पदार्थो की तस्करी में लिप्त रहा है। इसके अलावा वह भारतीय सीमा में आत्मघाती दस्ते और हथियारबंद आतंकियों की खेप भेजता है, जिससे उपयुक्त समय पर बगावत की जा सके। यही नहीं, भारत के बंटवारे की साजिश को अंजाम देने के लिए पाकिस्तान ने चीन और अन्य शक्तियों के साथ हाथ भी मिला लिया है। जबरदस्त आंतरिक अंतरविरोधों के चलते पाकिस्तान पूरी तरह विफल होने के कगार पर है और यह बस समय का फेर है कि ऐसा कब होता है? पाकिस्तान के पतन से भारत को अनेक लाभ होंगे। पाकिस्तान ने जो आत्मघाती रास्ता चुना है वह उसे या तो टुकड़े-टुकड़े कर कई राज्यों में विखंडित कर देगा या फिर वहां के हालात अपने आप हाथ से बाहर हो जाएंगे। दोनों ही सूरतों में बलूचिस्तान स्वतंत्र हो जाएगा। इससे भारत के लिए अवसरों की खिड़की खुल जाएगी। ऐसा हुआ तो ग्वादर बंदरगाह चीन के हाथ नहीं लग पाएगा। हमें बलूचिस्तान में अपनी साख का बड़ी समझदारी से फायदा उठाना चाहिए। सिंध और पंजाब के अलावा शेष अन्य इलाकों में से अधिकांश हमारे नए मित्र होंगे। पाकिस्तान के टुकड़े होने से जेहाद के कारोबार को जबरदस्त आघात लगेगा, क्योंकि इसकी धुरी पाकिस्तान ही है। इसके अलावा पाकिस्तानी सेना और आईएसआई के क्रियाकलापों पर भी अंकुश लगेगा। पाकिस्तान के अशक्त होने से चीन की एक भुजा भी कट जाएगी। भारत के लिए प्रमुख खतरा चीन ही है।
यद्यपि हम चीन के साथ रचनात्मक संबंध कायम रखते हैं, फिर भी हमें परदे के पीछे के खेल को खत्म करने का प्रयास करना ही चाहिए। पाकिस्तान के बिखरने से न केवल अफगानिस्तान में काफी हद तक स्थिरता आ जाएगी, बल्कि मध्य एशिया के ऊर्जा स्त्रोतों तक भारत के रास्ते खुल जाएंगे। इसके अलावा यह अपेक्षा भी की जा सकती है कि नेपाल और बांग्लादेश में भारत विरोधी शक्तियां हतोत्साहित होंगी और उनका प्रभाव घटेगा। घाटी में हालिया उपद्रव के दौरान मुझसे एक जनरल ने इसका हल पूछा था। मैंने कहा, पाकिस्तान को मिटा दो। खतरा हमेशा के लिए खत्म हो जाएगा। निकट भविष्य में एक राष्ट्र के रूप में पाकिस्तान का अंत लगभग निश्चित है। दूरदृष्टि का परिचय देते हुए भारत को मध्य एशिया में अपने हित सुरक्षित रखने के लिए पाकिस्तान के पश्चात के परिदृश्य पर मंथन शुरू कर देना चाहिए। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि कुछ वोटों का व्यक्तिगत अल्पकालिक लाभ उठाने के लिए अदूरदर्शी राजनेता राष्ट्रीय हितों की अनदेखी कर रहे हैं। (लेखक इंडियन डिफेंस रिव्यू के संपादक हैं)