शनिवार, 11 दिसंबर 2010
बिहार में लालू, रामविलास व राहुल गांधी सिमटे बिहार के चुनावी नतीजे देश के सामने हैं। लालू प्रसाद -राम विलास पासवान और कांग्रेस की सभी संभावनाओं पर पानी फिर गया। विकास ने अपनी परिभाषा इस चुनाव के माध्यम से लिख दी है। बिहार को विकास व रोजगार चाहिए इस परिणाम ने पूरी तरह से यह साबित कर दिया है। कुशासन नहीं सुशासन चाहिए। जातीय गठजोड़ नहीं विकास का समुच्य चाहिए। गाली नहीं सम्मान चाहिए और बिहार पर गौरव का स्वाभिमान व आत्मविश्वास चाहिए। हालांकि 2005 में ही जनता ने भाजपा-जदयू को जनादेश दे दिया था लेकिन इस बार की 8 करोड़ 30 लाख जनता ने इन पांच वर्षों के स्वशासन पर मुहर लगाते हुए ऐतिहासिक जीत का इतिहास भाजपा-जदयू के नाम रच दिया। ऐसी जीत जो आज तक किसी राजनीतिक दल के नाम यहां नहीं लिखी गयी थी। बिहार अपने उस सांस्कृतिक व सामाजिक गौरव को फिर से स्थापित करने को लालायित है, जिसकी उसे वर्षों से चाह रही है। बस एक नेतृत्व की जरूरत थी जो उसे उस मंजिल का रास्ता दिखा सके। वह उस जातीय मकड़जाल और सामाजिक न्याय से पूरी तरह से बाहर निकलने को आतुर रही, जिसे लालू यादव व कांग्रेस ने बिछाकर लम्बे समय तक राज किया था। उसे उस सामाजिक न्याय की दरकार थी जो, भय, भूख भ्रष्टाचार से मुक्त कर अतीत के गौरवशाली बिहार का उसे हमसफर बना सके। बिहार का जनमानस अपने उस नेतृत्व के साथ एक बार फिर से खड़ा है, जो उसे पांच साल पहले मिला था। निश्चित रुप से नीतीश कुमार व सुशील मोदी का वह वाक्य कि इन पांच वर्षों में यहां बहुत कुछ बदल गया है आइए इसे और विस्तार करते हुये एक मंजिल दे, जनता को पसंद आया और वह इस गंठबंधन के साथ पहले की अपेक्षा और डटकर खडी हुई। यह जीत उस विकास का निष्कर्ष है जो इन पांच सालों में भाजपा-जदयू गंठबंधन की सरकार ने यहां पेश की, जनता इस विकास तस्वीर को आधा-अधूरा बीच में ही छोड़ना नहीं चाहती थी, पूरा करना व देखना चाहती थी। उन्होंने वादा निभाया है अब वादा निभाने की बारी भाजपा-जदयू गठबंधन की है। विकास की एक तस्वीर पर नजर डाले तो पता चलेगा कि आखिर जनता इस गठबंधन के साथ क्यों खड़ी रही। लालू के 15 सालों के जंगलराज की तुलना में सड़क निर्माण 2005-06 के 415 किलोमीटर से बढ़कर 2008-09 में 2417 किलोमीटर हुआ। नवजात बच्चों की मौत की दर में काफी कमी आयी। प्रसव के दौरान होने वाली मौत की दरों में काफी गिरावट आयी। सामाजिक क्षेत्र पर आवंटन 2004-05 के 137 करोड़ रूपये से बढ़कर 2009-10 में 1455 करोड़ रुपये हुआ। शिक्षा पर खर्च 2004-05 के मुकाबले 2009-10 में 114. 79 प्रतिशत से बढ़कर 8344.09 करोड़ रुपये हो गया। स्वास्थ्य पर खर्च 2004-05 के 607.47 करोड़ रुपये से बढ़कर 2009-10 में 1662.80 करोड़ रुपये हो गया। बीते वित्त वर्ष में बिहार के विकास दर को 11 फीसदी कर गुजरात के बराबर करने की कोशिश इस दोनों नेताओं ने की। एक टर्म के शासन काल में ही बिहार बदलता दिखने लगा, सृजनात्मक, भयमुक्त अपराधियों पर शिकंजा व विकास की जमीनी सच्चाई से लोग रु-ब-रु होने लगे। इसलिए जनता उस जंगलराज के नायक के नेतृत्व में नहीं बल्कि स्वशासन देने वाले और बंदूक की गोलियों की आवाज से मुक्त करने वाले नायक के साथ खड़े हुये। राजद-लोजपा व कांग्रेस का सारा कुनबा ही सिमट गया। बड़बोलेपन, व अपरिपक्व राजनीति पर विराम लग गया। लालू प्रसाद, रामविलास पासवान व कांग्रेस ये तीनों यहां खलनायक की तरह थे जो बार-बार यहां की अस्मिता पर चोट करने के बाद भी शासन करने का सपना पाले थे। लेकिन इस चुनाव में इन दलों को ऐसा झटका लगा कि वे संवैधानिक तौर पर विपक्ष की भूमिका भी हासिल नहीं कर सके। इनका छद्म सामाजिक न्याय टूट-टूट कर शीशे की तरह चूर -चूर हो गया। बिहार में कांग्रेस सम्मानजनक सीटें प्राप्त करने के लिए लड़ रही थी। जबकि 1989 से ही वह वहां कमजोर व शुन्य की स्थिति में है। देश में पहली बार जब भ्रष्टाचार चुनावी मुद्दा बना था तो कांग्रेस का बिहार से पूरी तरह सफाया हो गया। 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को मिले 10 प्रतिशत वोट, को उसने स्वयं को विकल्प समझ लिया। जबकि कांग्रेस को यह मत प्रतिशत संगठन, कार्य व विचार कौशल के कारण नहीं बल्कि चन्द उन उम्मीदवारों के कारण बढ़ा था, जो दूसरे दलों से आकर चुनाव लड़े जिनकी कुछ राजनीतिक जमीन थी। इसी मुगालते में राहुल व सोनिया गांधी मतदाताओं से मिले, चुनावी सभाएँ की और सरकार बनाने का अवसर देने की अपील की। आखिर जनता जानती है कि आजादी के बाद लम्बे समय तक कांग्रेस का ही यहां शासन था। बिहार में जातीय राजनीति की शुरुआत, भ्रष्टाचार, सांप्रदायिक ध्रवीकरण व कस्बे-कस्बे में अराजकता को बिछाने का काम इसी कांग्रेस ने किया था। बिहार के पिछड़ेपन और अतीत के विध्वंस के लिए कांग्रेस को आज भी वहां की जनता जिम्मेवार मानती है। 1990 के बाद लालू यादव ने भी वहीं किया जो कांग्रेस करती आ रही थी। कांग्रेस से सबक नहीं लेते हुये वहीं जातीय गठजोड़ की राजनीति की शुरुआत की। 15 वर्षों तक बिहार उन्हें झेलता रहा और सुधरने का अवसर भी देता रहा, लेकिन वे कांग्रेस की तरह ही सत्ता को अपनी नियति मान बैठे थे, वहीं हुआ जो 1989 में कांग्रेस के साथ जनता ने किया, पूरी तरह से सफाया जिसका अनुमान भी उन्हें नहीं था। जिस जाति समीकरण के सहारे वे स्वयं को मजबूत मानते थे, उसी समीकरण ने छोड़कर विकास का सुनहरा दामन थाम लिया। वे बेनकाब हुये। उनकी असलियत बिहार व देश के सामने आयी। चुनाव अभियान में जनता से सत्ता देने की बात करते रहे, पांच वर्षों के विकास कार्य को फर्जी आंकड़े के सहारे वे गलत साबित ठहराते रहे, लेकिन लोगों ने उनकी एक न सुनी औैर पारिवारिक पार्टी राजद व लोजपा को एक सिंगल परिवार बनाकर छोड़ दिया। लोकसभा चुनाव के बाद राहुल गांधी पूरे दमखम के साथ विधानसभा चुनाव की रणनीति बनाने में जुटे थे। लेकिन उनकी बातों को अपरिपक्व करार देते हुये उससे स्वयं को अलग कर लिया। अधिकांश राजनीतिक विश्लेषकों का कहना कि मतदाताओं पर राहुल गांधी का प्रभाव नहीं पड़ता है, गुजरात, झारखण्ड, छतीसगढ़ मध्यप्रदेश के विधानसभा चुनाव के नतीजे उनके सामने थे। बावजूद राहुल राग का अलापना कांग्रेसियों ने बन्द नहीं हुआ। राहुल गांधी जहाँ-जहाँ गये कांग्रेस प्रत्याशियों को बुरी तरह से पराजय का सामना करना पड़ा। राहुल गांधी का जादू मनमोहन सिंह सरीखे नेताओं पर चल सकता है लेकिन देश के मतदाताओं पर नहीं। बिहार में सम्पन्न 6 चरणों के चुनाव में राहुल गांधी की जोदार सभाएँ आयोजित कर भीड़ जुटायी गयी। 17 सभाएँ व रैलियाँ का परिणाम सिफर निकला। कटिहार, अररिया, सुपौल, सीतामढ़ी मुज्जफपुर समस्तीपुर कुचायकोट, मांझी, बेगुसराय मुंगेर, भागलपुर शेखपुरा, नवादा सासाराम व औरंगाबाद इन सभी जगहों पर उम्मीदवारो की जमानत जब्त हुई या वे पांचवे छठे स्थान पर रहे। 10 प्रतिशत वोट को सत्ता तक पहुंचाने की कोशिश में महज चार सीटों से ही संतोष करना पड़ा। ये है राहुल का चमत्कार कि जहां वे जाते हैं, कांगेस को हारना ही होता है। सोनिया गांधी ने भी बड़ी सभाएं की लेकिन उनका हश्र भी राहुल गांधी की तरह हुआ। भीड़ जुटी, लोग सुने लेकिन विश्वास नहीं किया, क्योंकि आज भी बिहारी जनमानस को स्मरण है कि लालू की अराजक सरकार को आक्सीजन देने का काम कांग्रेस ने सरकार में शामिल होकर किया था। उसके सभी विधायक लालू शासन में मंत्री बनाये गये थे। जीत के लिए समीकरण नहीें विजन और न्याय परक सोच चाहिए। फरवरी 2005 के विधानसभा चुनाव पर गौर करें तो रामविलास पासवान की पार्टी को जनता ने अकेले 20 से अधिक सीटों पर विजयी बनाया। अपराधियों का गठजोड़ बनाकर बिहार को कलंकित करने का काम इसी पासवान ने किया, जो मुस्लिम मुख्यमन्त्री को बनाने की माँग कर रहे थे। नवम्बर में दोबारा विधानसभा चुनाव में यह सीटें घटकर आधा हो गयी। लेकिन इस बार तो पूरी की पूरी राजनीतिक जमीन ही सिमट गई। जिस जनता ने उन्हें भारत में सबसे अधिक वोटों से जीता कर उनके नाम लोकसभा का रिकार्ड बनवाया, तो उसी ने उन्हें दिल्ली के लायक नहीं समझ भाई, पत्नी, दामाद की पार्टी लोजपा को एक कोने में समेटकर रख दिया। उनकी बोलती बंद कर दी। तीन सीटें देकर प्रायश्चित के लिए छोड़ दिया। रही बात लालू प्रसाद यादव की तो लोग आज भी उनके खौफनाक अंदाज को नहीं भूले हैं, उनके पारिवारिक सदस्यों और रसोई से निकलकर मुख्यमंत्री बनी राबड़ी देवी की हनक अपराधियों की शरण स्थली, अपहरण लूट, गुण्डागर्दी बलात्कार, रोजगार शून्य, ठप्प शिक्षा व्यवस्था का उसे स्मरण है। पति-पत्नी साले एण्ड कंपनी ही यहां के विशेषण बने हुए थे और इसी विशेषण ने बिहार की अस्मिता व राजनीति को बदनाम कर रखा था। आज भी पटना का गांधी मैदान उस जातीय रैलियों का गवाह है, जिसका आयोजन वे अपनी उपलब्धियाँ बताने के लिए नहीं बल्कि जातीय उन्माद को भड़काने के लिए किया करते थे, समाज को जोड़ने में नहीं बल्कि टुकड़े-टुकड़े में तोड़ने का काम इसी लालू प्रसाद यादव ने किया था। लोकतन्त्र में इस कदर शर्मनाक स्थिति का सामना यहाँ की जनता ने किया है। शायद वे बुद्ध के बोधित्व के बिहार, महावीर के प्रज्ञा के बिहार, गुरुगोविंद सिंह की जन्मस्थली, नालंदा व विक्रमशीला विश्वविद्यालय के बिहार, चंद्रगुप्त, चाणक्य, सम्राट अशोक व वैशाली के गणतंत्र के बिहार को भूल गये थे। लेकिन वहां की जनता ने उन्हें यह स्मरण करा दिया कि बिहार की पहचान इन कारणों से है न कि राबड़ी लालू से। शायद लालू प्रसाद को विश्वास था कि वे जातीय समीकरण के संजाल व भ्रम को फैलाकर जनता को एक बार फिर गुमराह करने में सफल होंगे; लेकिन वे इसे कर पाने में नाकामयाब रहे। 20 सालों तक जनता के साथ शासन कान्ट्रेक्ट की बात करने वाले लालू यादव का कान्ट्रेक्ट जनता ने 2005 में ही तोड़ दिया था, लेकिन अब उन्हें तो भविष्य में किसी कान्ट्रेक्ट के लायक भी नहीं छोड़ा। जिस तरह किसी फिल्मी पर्दें पर खलनायकों का अन्त दिखाया जाता है, उसी अंदाज में लालू हेकड़ी को जनता ने अन्त कर दिया है, जो फिर कभी राजनीति की गरिमा पर नाहक चोट न कर सके।
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